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संख्या ५)
'हिन्दी याने हिन्दोस्तानी
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में यह बात हो सकेगी कि नहीं, ऐसा विचार कम लोग यह आश्वासन दिया कि हिन्दी से हमारा तात्पर्य बोलचाल किया करते हैं । यह ठोस सत्य है कि कुछ लोग भाषा और की भाषा है तब मुसलमानों ने यह समझा कि हिन्दी का लिपि का निर्माण नहीं कर सकते । उसका निर्माण तो कुछ अर्थ है 'हिन्दुस्तानी', यानी बोल-चाल की भाषा और ऐतिहासिक सत्य सिद्धान्तों के आधार पर ही होता है। उर्दू एक ही हों। अन्य प्रान्तीय लिपियों की एकता का प्रयत्न तो काका असल में हिन्दी राष्ट्र-भाषा इसी लिए कही जाती है साहब का चल रहा है और उसमें सफलता की अाशा भी कि वही हिन्दुस्तान के अधिक लोगों के व्यवहार में इस होने लगी है।
समय आ रही है, और देश-भाषाओं में आज इसी को नागपुर में होनेवाले भारतीय साहित्य-परिषद् के अन्तः प्रान्तीय महत्त्व प्राप्त है। इस अर्थ में हमारे विचार प्रथम अधिवेशन के अवसर पर स्वागताध्यक्ष-पद से से 'हिन्दुस्तानी-शब्द की अपेक्षा हिन्दी शब्द ही अधिक भाषण करते हए काका साहब ने स्वीकार किया है कि उपयुक्त है। क्योंकि जिन लोगों की यह जन्म-भाषा है उनके राष्ट्र-भाषा हिन्दी ही हो सकती है। वे कहते हैं
प्रान्त का नाम 'हिन्द-प्रान्त' है और यह शब्द है भी "हम हिन्दी का ही माध्यम स्वीकार करते हैं, इसके कई प्राचीन । हम इतना तो मानते ही हैं, और वह है भी सत्य
कारण हैं । पहला कारण तो यह है कि यह माध्यम कि व्यवहार में तो वही भाषा प्रयुक्त हो जो सबकी समझ स्वदेशी है। करोड़ों भारतवासियों की हिन्दी जन्म- में आसानी से आ जाय। उस भाषा में वे शब्द भी गिने भाषा ही है। दूसरा कारण यह है कि सब प्रान्तों के जायँगे जो फारसी, अँगरेज़ी आदि भाषाओं से ले लिये गये सन्त कवियों ने सदियों से हिन्दी को अपनाया है। हैं । अब वे शब्द फ़ारसी आदि भाषाओं के ही न रह कर यात्रा के लिए जब लोग जाते हैं तब हिन्दी का ही हमारे भी हैं। ऐसे शब्द निकाले जा भी नहीं सकते। सहारा लेते हैं । परदेशी लोग जब भारत में भ्रमण फ़ारसी आदि भाषाओं के शब्द केवल हिन्दी में ही नहींकरते हैं तब उन्होंने भी देख लिया है कि हिन्दी के महाराष्ट्र आदि प्रान्तीय भाषाओं में भी उनकी कमी नहीं है। सहारे ही वे इस देश को पहचान सकते हैं। असल हम अन्य भाषाओं के व्यवहृत शब्दों को निकाल फेंकने के में तो हिन्दी-भाषा है ही लचीली, तन्दुरुस्त बच्चों पक्ष में नहीं । भाषा के प्रकार अथवा आत्मा के सम्बन्ध में की तरह बढ़नेवाली, और इसकी सर्व-संग्राहक-शक्ति ही हमारा मतभेद है । इस बात का निश्चय हो जाना तथा समन्वय-शक्ति भी असीम है। जिस भाषा को चाहिए कि हमारी राष्ट्र-भाषा का आधार संस्कृत और अाज अपने तेरह उपविभाग सँभालने पड़ते हों उसको तद्भव भाषायें होगा, अथवा फ़ारसी और तद्भव भाषायें । राष्ट्र-भाषा की भूमिका धारण करने में कोई कठिनाई संस्कृत और उसकी प्राकृत भाषाओं में तथा फ़ारसी और न होगी।"
तत्प्राकृत-भाषाओं में आकाश-पाताल का भेद है। समास पाठक देखेंगे कि यहाँ सर्वत्र काका साहब ने उक्त आदि के नियमों में भी महान् अन्तर है । राष्ट्र-भाषा के लिए अर्थो में 'हिन्दी'-शब्द का ही प्रयोग किया है।
हिन्दी' शब्द का प्रयोग इस सन्देह को निवृत्त कर देता है। दुर्भाग्यवश हिन्दुस्तान में किसी ऊँची से ऊँची भी हिन्दी का अर्थ है संस्कृत और तन्मूलक भाषाओं के बात को साम्प्रदायिक रूप में देखने की प्रवृत्ति हो गई है। आधार पर बनाई गई भाषा। मेरा दावा है कि हिन्दू भारत के लोगों को अपने देश की अपेक्षा अपने सम्प्रदाय अथवा मुसलमान दोनों के व्यवहार में यही भाषा की रक्षा की अधिक चिन्ता है। यही बात हिन्दी के पाती है। और फिर मुसलमानों की भी बहुसंख्या सम्बन्ध में भी कही जा सकती है। 'हिन्दो' राष्ट्र-भाषा तो गाँवों में रहती है और उसकी भाषा प्रान्तीय ही है। बनाई गई है, ऐसा जब मुसलमानों ने सुना तब उन्होंने विभिन्न भाषाओं के शब्दों के प्रयोग-अप्रयोग के कारण इसका यही अर्थ समझा कि अब कांग्रेस भी उर्दू-भाषा और भेद तो चित्र में रंग भरने के समान है, उससे 'आत्मा' उसकी लिपि को नष्ट करने पर तुल गई है, यद्यपि किसी में अन्तर नहीं हो जाता। भी कांग्रेस-नेता का ऐसा विचार नहीं था। जब नेताओं ने बोलचाल की भाषा और साहित्यिक भाषा में भेद तो
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