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संख्या ४] .
मानव .
बल के उन्मत्त पिशाचों को सुख-वैभव का कल्याण मिला, निर्बलता के कंकालों की
छाती पर फिर पाषाण मिला। हम लेने को देवत्व बढ़ेपशुता का हमें प्रमाद मिला, पर की तड़फन में, आँसू में हमको अपना आह्लाद मिला; निज गुरुता का उन्माद मिला, निज लघुता का अवसाद मिला, बस यहाँ मिटाने को हमको मिटने का आशीर्वाद मिला!
(४) जब हमने खोली आँख वहीं उठने की एक पुकार हुई; रवि-शशि उडु भय से सिहर उठे जब जीवन की हुंकार हुई; 'तुम हो समर्थ, तम स्वामी हो'जब तत्त्वों की अनुहार हुई, तब क्षित की धुंधली रेखा में
खिंच कर सीमा साकार हुई। जब एक निमिप में युग-युग की व्यापकता व्याप्त विलीन हुई, जब एक दृष्टि में दश-दिशि के बन्धन से छवि स्वाधीन हुई, जब एक श्वास में भावी की स्वप्निल छाया प्राचीन हुई, जब एक आह में मानव की गुरुता खिंच कर श्रीहीन हुई !
जब हम सबलों की शक्ति प्रबल निबल संमृति पर भार हुई, जब विजित, पददलित अणु-अणु से . मानव की जयजयकार हुई, जब जल में, थल में, अम्बर में अपनी सत्ता स्वीकार हुई तव हाय अभागे की अपने ही से हार हुई! .
नारी के द्यतमय अंगों की द्युत में मिल द्युतमय होने को पृथ्वी की छाती फाड़ लिया हमने चाँदी को, सेाने को। हमने उनको सम्मान दिया ' पल भर निज गुरुता खाने को पर हम निज बल भी दे बैठे, अपनी लघुता पर रोने को!
लोहे से असि निर्मित की थी अपने अभाव को भरने को, हिंसक पशुओं के तीव्र नखों से अपनी रक्षा करने को; हमने कृषि काटी थी उस दिन निज तीव्र क्षुधा के हरने को, पर हाय हमारी भूख ! कि हम
लाये असि खुद कट मरने को! मथ डाले हैं सागर-अम्बर हमने प्रसार दिखलाने को, विद्युत् को हमने निगल लिया मानव की गति बन जाने को; तेलों को हमने दाह दिया निशि में प्रकाश बरसाने को; पर आज हमारे खाद्य घिरे हैं वे हमको ही खाने को !
देखो वैभव से लदी हुई विस्तृत विशाल बाजार यहाँ ! देखा मरघट पर पड़े हुए भिखमंगों के अम्बार यहाँ ! देखो मदिरा के दौरों में नवयौवन का संचार यहाँ ! देखो तृष्णा की ज्वाला में
जीवन को होते क्षार यहाँ ! केवल मुटी भर अन्न-कहाँ है नारी में सम्मान यहाँ ?
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