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संख्या ५]
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बदरी बदरी
उसने इतना बोझ उठाया कि कश्मीर के हातो भी दंग उसका दुपट्टा लहरा रहा है। निश्चय ही वह वहाँ बैठी रह गये। थोड़ी-बहुत मात्रा में उसने व्यापार भी किया। हुई थी । उसका दिल धड़कने लगा। उसने पक्षों के बल लोयर बाज़ार से ग्राम माल लेकर नफ़े पर रुलदू भट्टा धीरे-धीरे चलना शुरू किया। परन्तु उससे चला न जाता सांकली और भराड़ी में बेच पाया। इस काम में उसे था, उसके पैरों में कम पैदा हो रहा था। वह पीछे से इतना लाभ हुया कि जब तक ग्रामों का बाहुल्य रहा वह जाकर उसकी आँखें बन्द कर लेगा। वह मचलेगी, यही काम करता रहा । जीवन में जिस स्फूर्ति की आवश्य- तड़पेगी और वह हाथ छोड़कर उसके सामने शीशा, कंघी, कता होती है वह उसके पास थी और वह दिन-रात रुमाल, इत्र की शीशी, बिजली का टॉर्च और दूसरे उपकाम करके भी न थकता था। उसने ख़र्च बड़ी सावधानी हारो का ढेर लगा देगा। उल्लास के मारे उसके पाँव न से किया और अब उसके पास लगभग तीन सौ रुपये उठते थे। इस तरह चलता हुअा वह झाड़ी के समीप मौजूद थे। इस रकम को देखकर उसका उत्साह दुगुना पहुँचा कि उसके कान में गाने की आवाज़ आई। वह हो जाता था। वह प्रतिदिन इस बढ़ती हुई संख्या को ठिठक गया । उसका सब नशा हिरन हो गया, उसमें अागे देखता था और प्रतिदिन उसकी अाशालता पल्लवित बढ़ने की शक्ति ही न रही। यह तो कांशी की आवाज़ थी, होती जाती थी। कभी जब रात को थक-हार कर वह यह तो वही गा रहा था। बदरी ने सुना, कांशी की अपने डेरे में धरती पर लेटता तब उसके स्वप्नों की दुनिया पुरानी परिचित स्वर-लहरी धीरे-धीरे वायुमंडल में बिखर सुनहरी हो जाती। इन स्वप्नों में वह सुर्ज से और सुर्ज़ रही थीउससे प्रेम करती। वह उसकी मुहब्बत को जीत लेता, बदरी ने एक-एक शब्द ध्यान से सुना। कांशी गा उसके दिल में कांशी की याद को भुला देता और अपने रहा था। हाँ वही गा रहा था--अपना पुराना परिचित उपहारों तथा उपकारों से उसे राजी कर लेता और फिर राग । बदरी के दिल की गहराइयों से दीर्घ निश्वास निकल कहीं से नींद की परी अाकर उसकी थकी हुई पलकों को गया। उसने उचक कर देखा। दोनों एक-दूसरे के सुला देती।
श्रालिंगन में बद्ध थे। - सितम्बर बीतने पर बदरी की उद्विग्नता इस हद तक सुर्ज बोली- “कांशी, यदि बदरी तुम्हें मिले तो बड़ी कि उसके लिए शिमले में आक्टोबर का महीना तुम उससे क्या सलूक करो ?" काटना अत्यन्त मुश्किल हो गया। श्राक्टोबर के पहले उसने मुझे पत्थर गिराकर मारने का प्रयास किया सप्ताह में ही उसने अपना जोड़ा-जत्था सँभाला, सुर्ज के था, खड्ड में लुढ़कते समय मैंने उसे पहाड़ की चोटी पर लिए विभिन्न उपहार ख़रीदे और उन नये वस्त्रों से सजकर कहाहा लगाते देखा था, परन्तु यदि तुम कहो सुज तो जो उसने सिलवाये थे, वह एक दिन शोली को चल पड़ा। मैं उसे क्षमा कर दूं।"
सन्ध्या का समय था। वह गाँव के समीप पहुँचा। "कदापि नहीं'। सुज ने कहा-'मेरा बस चले तो जल-प्रपात के पास जाकर वह रुक गया। नाले के किनारों में उसे जीवित इस जल-प्रपात में रिकवा दूं।" पर सुर्ज की गायें चर रही थीं। उसे यकीन था कि सुर्ज कांशो ने उसे अपनी भुजाओं में भींच लिया। भी वहीं पत्थर पर बैठी पानी से अठखेलियां कर रही उस समय बदरी का सिर चकराया और वह मस्तक होगी। उसने देखा, तनिक दूर एक बड़ी भाड़ी के पीछे थामकर खोया हुआ-सा वहीं बैठ गया ।
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