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सरस्वती
खिड़कियों की आँखों से पानी की इस चंचल विनम्रता का नज़ारा कर रही थीं । सन्ध्या ने टेसू के रङ्ग का दुपट्टा ओढ़ लिया था और छोटी छोटी पहाड़ी गायें बस्तियों को लौट रही थीं। दूर किसी जगह कोई अल्पवयस्क लड़का अपनी बाँसुरी में इन पर्वतों की भाँति पहाड़ी युवती के वियोग का पुराना करुण राग अलाप रहा था । ऐ ब्रम्हण के लड़के शिमले न जा बेवफ़ा मेरी हसरतें खाक हो जाएँगी बेवफ़ा
शिमले न जा सुना के किनारे पत्थर पर बैठी थी । उसका सिर झुककर घुटनों से लग गया था । श्रन्यमनस्कता में वह छोटी छोटी कंकरियाँ नाले में फेंक रही थी । बाँसुरी की मधुर और करुण ध्वनि उसके हृदय को द्रवित किये देती थी । धीरे धीरे अपने दिल में वह दुहरा रही थी - शिमले न जा बेवफ़ा शिमले न जा ।
कांशी देर से झाड़ी में छिपा बैठा था, आज उसे भली भाँति देख लेना चाहता था, मुद्दत प्यासी अपनी आँखों की प्यास बुझा लेना चाहता था । वह उसे अपनी आँखों में बिठा लेना चाहता, अपने दिल में छिपा लेना चाहता था, चाहे इसके बाद दिल की धड़कन ही बन्द हो जाय, आँखों की ज्योति ही बुझ जाय । श्राज सुर्ज एक बार सिर उठाये तो वह उसे जी भर कर देख ले | जाने फिर यह मोहनी मूरत देखनी नसीब हो या नहीं, अभी दिल के अरमान निकाल ले, मन की साध पूरी कर ले। सुर्जू के सामने उसकी निगाहें झुक जाती थीं । स्वामी की उपस्थिति में चोरी कर भी कौन सकता है ? छुपकर लूट लेना भी सम्भव है ।
कितनी देर तक वह इसी प्रतीक्षा में बैठा रहा, लेकिन सुर्जू ने सिर न उठाया, कांशी की हसरत न निकली । छोटी छोटी कंकरियाँ नाले में गिरती थीं और किसी आवाज़ के बिना जल-प्रवाह में विलीन हो जाती थीं- उन शक्त मनुष्यों की भाँति जो किसी ध्वनि के बिना मृत्यु की बहिया में बहे चले जाते हैं ।
श्राख़िर वह धीरे धीरे आगे बढ़ा और धड़कते हुए दिल के साथ उसने झुककर अपना हाथ सुर्ज के कंधे पर रख दिया। दो बहते हुए झरने उसकी ओर उठे और उसकी अपनी आँखों से नदियाँ प्रवाहित हो गई ।
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[ भाग ३८
“तुम रो रही हो सुर्जू” !
'तुम रो रहे हो कांशी' !
और दोनों चुप हो गये, केवल एक-दूसरे को देखते रहे । दूर कमसिन लड़का गा उठा
ऐ म्हण के लड़के शिमले न जा बेवफ़ा
परदेश में जाकर तू मुझे भूल जायगा बेवफ़ा शिमले न जा
सुर्ज ने कांशी की ओर देखा, मानो वह इसका जवाब पूछ रही हो । बाँसुरीवाले ने अपनी ऊँची, मीठी आवाज़ से फिर गीत अलापा -
ऐ ब्राम्हण की लड़की घबरा मत मेरी जान
तुझे भूलना जी से गुज़र जाना है मेरी जान
घवरा मत
कांशी की आँखों में एक हलकी-सी जुंबिश हुई और सुर्ज के प्रश्न का उत्तर दे दिया गया ।
और फिर दोनों अनायास लिपट गये, जुदा हुए और फिर लिपट गये और इसके बाद छोटे-छोटे पौधों और झाड़ियों में उलझते पत्थरों से ढोकरें खाते चोटी पर बसे हुए गाँव की ओर रवाना हो गये ।
उस वक्त एक दूसरी झाड़ी से बदरी निकला-प्रतिशोध की साक्षात् मूर्ति । क्रोध के मारे उसकी आँखों में रक्त उबल श्राया था । वह, जिसे वह चिरकाल से अपने हृदय - मन्दिर में बिठाये पूजा करता था - वह, जिसे वह पा ही लेता यदि यह कांशी बीच में न कूद पड़ता - वह आज उससे छिन गई थी। वह कांशी की भाँति रूपवान् न सही, पर इतना कुरूप भी न था । कभी सुर्ज की प्रेमभरी दृष्टि उसकी ओर भी उठा करती थी । परन्तु उसमें कांशी का सा हौसला न था और प्रेम में साहस सफलता की पहली शर्त है । वह सुर्ज की मेहरबान निगाहों को देखता था, उसके हृदय में हलचल मच जाती थी, लेकिन वह चुप रहता था । फिर कांशी आया । सुर्ज ने उसे भी प्रेम से देखा । कांशी ने उन मुहब्बत भरी निगाहों का जवाब दिया और फिर आँखों ही आँखों में खींवाली
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