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सरस्वती
[भाग ३८
महाय
पर अत्यधिक प्रभाव पड़ा है। उनमें जो स्वाधीन हैं वे ने रूस को एक अभिनव रूप देने का तादृश एकता के सूत्र में प्राबद्ध हो जाने में ही सफल-मनोरथ विकट प्रयास किया था, परन्तु गत नवम्बर में नहीं हए है, किन्तु इस बात का भी बृहत् आयोजन कर वहाँ जो नया शासन-विधान जारी किया गया है वह रहे हैं कि अगले प्रलयंकर युद्ध में वे २० लाख के लगभग लेनिन की कल्पनाओं से कितनी दूर हो गया है, इसकी शिक्षित योद्धा युद्ध-भमि में समवेत कर सकें। इनके . यहाँ चर्चा करने की ज़रूरत नहीं है। उस सम्बन्ध में सिवा जो मुसलमानी देश पराधीन या अर्द्ध स्वतंत्र हैं वे केवल एक उदाहरण भर देना यहाँ उपयुक्त होगा । फ्रांस वर्तमान अव्यवस्था को देखकर स्वतंत्र हो जाने का उपक्रम में राज्यक्रान्ति के फलस्वरूप जैसी नास्तिकवाद की धूम कर रहे हैं । इस प्रकार एक ओर योरप जहाँ भविष्य के मचाई गई थी वैसी ही क्या, उससे भी अधिक रूस में भी
द्ध की तैयारी में संलग्न है, वहाँ दूसरी ओर संसार मचाई गई थी। परन्तु अाज उसका वहाँ कितना ज़ोर है के दूसरे राष्ट्र उस विषम परिस्थिति से अधिक से अधिक उसका विवरण लीजिएलाभ उठाने के लिए अभी से तैयार हा रहे हैं। और १९१७-१८ की क्रान्ति के बाद सोवियट सरकार के इस सम्बन्ध में मुसलमानी देश अधिक तत्पर दिखाई दे कायम हो जाने पर सारे चर्च बन्द कर दिये गये, पादरियों रहे हैं। इस भयानक परिस्थिति का भविष्य में क्या परि- पर तरह तरह के जुल्म ढाये गये। पुराने चचों की णाम निकलेगा, इसका तो अन्दाज़ नहीं किया जा सकता, जायदादें ज़ब्त हुई। धार्मिक प्रचार भी बन्द हो गया। पर यह स्पष्ट है कि इस समय संसार के देशों का धामिक स्कूल बन्द कर दिये गये। १८ साल से कम उम्र शासनसूत्र जिन लोगों के हाथ में है वे इस भयंकर परि- के बच्चों को धामिक शिक्षा देने की मनाही कर दी गई। स्थिति के सँभालने में यद्यपि बार-बार असफल हुए हैं, तो लेकिन फिर भी धामिक स्वतन्त्रता विद्यमान थो, अलबत्ता भी वे हार नहीं मानते और उसको वारण करने में वे अाज उसे अमल में लाना कठिन था। भी सोत्साह जुटे हुए हैं । नये लोका! और कच्चे माल के .मई १९२९ में 'मजूरों को अपनी आत्मा की आवाज़
के सम्बन्ध में समझौतों का जो नया आयोजन के अनुसार कार्य करने की स्वतन्त्रता देने के उद्देश से उन्होंने प्रारम्भ किया है उससे उनकी कुशल नीतिज्ञता चचं राज्य से और स्कूल चचों से पृथक कर ही प्रकट होती है। तथापि जैसे लक्षण हैं उनसे तो यही दिये गये। सब नागरिकों को धर्म के पक्ष या विपन में प्रकट होता है कि वे संसार को युद्ध की ज्वाला में दग्ध होने आन्दोलन करने की खुली छुट्टी दे दी गई। से नहीं बचा सकेंगे। यह निस्सन्देह बड़े दुःख की बात है १९३२ में एक बार फिर को सिल अाफ़. पीपल्स
और इसको देखते हुए यही कहना पड़ता है कि होनी कमिसरीज़ ने धम व ईश्वर के खिलाफ जिहाद बोली। होकर ही रहती है। अन्यथा पिछले महायुद्ध का लोकसंहार इसका उद्देश यह था कि रूस की सीमा में एक भी चर्च याद रखते हुए भी संसार के महान् राष्ट्र अाज इस तरह न रहे और लोगों के दिलों में से ईश्वर का विचारमात्र अगले दारुण लोकसंहार के लिए इस प्रकार विराट खत्म कर दिया जाय । श्रायोजन करते हुए न दिखाई देते।
मगर रूस की केन्द्रीय सरकार ने इस अान्दोलन का
न तो प्रोत्साहित किया और न अनुत्साहित ही किया। रूस का नया रूप
न केवल आँकड़ों से बल्कि गत वर्ष की सेनिक प्रश्नअतिशयता स्थायी वस्तु नहीं है। फ्रांस की राज्य- माला से भी यह साबित हो गया है कि रूस में धर्म और क्रान्ति के समय स्वाधीनता, समता और भ्रातृत्व के नाम ईश्वर-विरोधी आन्दोलन कम हो गया है। सैनिकों से पर जो जुल्म ढाये गये थे वे इतिहास में आज भी अंकित . पृछने पर पता चला था कि उनमें ७० प्रतिशत सैनिक हैं। परन्तु उन सिद्धान्तों के आधार पर जिस 'नूतन फ्रांस' ईश्वर पर विश्वास रखते हैं। अब एक सरकारी वक्तव्य का निर्माण हुअा था उसे स्थायी रूप कहाँ प्राप्त हो से मालूम हुआ है कि रूस में ईश्वर-विरोधी आन्दोलन सका ? इधर हमारे समय में रूस की बोल्शेविक क्रान्ति का अन्त हो चला है। १९३३ में ईश्वर-विरोधी-संघ के
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