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अश्क जी कहानी लिखने में बड़े कुशल हैं। इस कहानी में उनकी कला अपनी उत्कृष्टता का परिचय देती है। एक ग्रामीण युवक की सुकुमार भावना को जिस खूबी के साथ चित्रित किया है वह प्रशंसनीय है।
“वह मेरी मँगेतर"
लेखक, श्रीयुत उपेन्द्रनाथ अश्क, बी० ए०, एल-एल० बी० हाड़ी रियासत की हवालात । ब्लेकहोल से भी अधिक हाँ तो गोविन्द, मेरे साथ भी ऐसी ही दुर्घटना घटी
तंग। गहरे खड्ड में एक छोटी सी मडैया। थी, और वह भी इसी मेले में । उस समय टिक्का साहब इसमें एक छोटा-सा तहख़ाना, अँधेरा, नम और सर्द। बहुत छोटे थे। अब तो उनकी आयु भी चालीस साल ठंडक इतनी कि शरीर सुन्न होकर रह जाय । फर्श दलदल- की होगी और मैं तो साठ-सत्तर का हो चला हूँ। मेला सा। तहख़ाने के ऊपर सिपाहियों के सोने के लिए लकड़ी तब भी बड़े समारोह से होता था। तब तो यहाँ आनेवाली के तख़्तों की छत । उसमें नीचे तहख़ाने में उतरने के युवतियों की संख्या भी अधिक होती और नाच-रंग भी लिए पेंचों से जड़ा हुआ डेढ़-दो वर्ग गज़ का दरवाज़ा। बहुत होता था। मडैया के दरवाजे पर एक चौकीदार बैठा था और बाहर मैंने मेला कभी नहीं देखा था। था तो इधर का ही एक भंगी कहीं से काम करता करता थककर आग तापने रहनेवाला, पर बचपन से ही अपने दादा के पास लाहौर को आ बैठा था। दोनों में बातें हो रही थीं। विषय था चला गया था। वहाँ पन्द्रह साल नौकर रहा। फिर मेरी मूर्खता । मैं सी० पी० (सीपुर) का मेला देखने गया उन्होंने मुझे जवाब दे दिया। बात कुछ भी न थी, मुझसे था। वहाँ सिपाही से झगड़ा हो जाने के कारण हवालात कोई अपराध भी नहीं हुआ था, पर मेरा श्रायु में बड़ा में ढूंस दिया गया । गलती मेरी न थी। सिपाही ने मुझे हो जाना ही मेरे हक़ में विष साबित हुआ । वहाँ भले गाली दी थी और मैंने क्रोध में आकर उसके एक-दो आदमी बड़ी श्रायु के नौकरों को घर में नहीं रखते । मैंने थप्पड़ जड़ दिये थे। परन्तु पुलिस चाहे वह अँगरेज़ी और एक-दो जगह नौकरी करने का प्रयास किया और एक इलाके की हो अथवा देशी रियासत की, अपने दोषों को जगह मैं सफल भी हो गया, परन्तु मेरा मन नहीं लगा। दूसरे पर थोप देना खूब जानती है। चौकीदार को युद्ध मैं अपने गांव को लौट आया। चित्त उदास था और से सहानुभूति थी। उसकी बातों से मुझे ऐसा ही प्रतीत मन चंचल । इतने दिनों तक शहर के पिंजरे में बन्द हुआ। उसे कदाचित् अपने जीवन की कोई पुरानी घटना रहने के पश्चात् गाँव की स्वतन्त्रता मिली थी, परन्तु स्मरण हो आई । भंगी का नाम गोविन्द था। लम्बी साँस मुझे वह भी बुरी लगती थी । लेकिन स्वतन्त्रता पाकर लेकर उससे बोला
उसके गुण शीघ्र ही ज्ञात हो जाते हैं। मैं भी गाँव में ___भई, इसमें न सिपाही का दोष है, न इस बन्दी का। श्राकर खिल उठा । निराशा की सब उदासी और बेचैनी सब दोष है बुरे दिनों का । इसका सितारा चक्कर में है। दूर हो गई । यहाँ ठंडे वृक्षों के नीचे ठंडी ठंडी वायु में दुर्भाग्य के आगे किसी की पेश नहीं जाती। सच जानो, बाँसुरी बजाने में वह आनन्द प्राता था जो लाहौर की हम पर भी एक बार विपत्ति आई थी और इससे हमें जो गरमी में स्वप्न में भी नहीं आ सकता था। बाँसुरी मुझे कष्ट भोगने पड़े उनकी स्मृति-मात्र से ही आज भी रोंगटे दादा ने सिखाई थी। लाहौर में इसे बजाने का अवसर खड़े हो जाते हैं।
ही नहीं मिलता था और यहाँ गाने-बजाने के सिवा कुछ ___ गोविन्द ने, मुझे ऐसा प्रतीत हुआ, जैसे पाँव भी आग काम ही न था। मैं बाँसुरी में फूंक देता तो मीठी मदभरी के सामने पसार लिये और तन्मय होकर चौकीदार की तान दूर घाटियों में गूंज जाती। कहानी सुनने लगा।
. गाँव में आने पर मुझे एक और बात का भी अाभास चौकीदार दीर्घ निःश्वास छोड़कर बोला- ... हुआ। वह यह कि मैं अब किसी का नौकर नहीं, बल्कि
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