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धारावाहिक उपन्यास
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शनि की दशा
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अनुवादक, पण्डित ठाकुरदत्त मिश्र वासन्ती माता-पिता से हीन एक परम सुन्दरी कन्या थी। निर्धन मामा की स्नेहमयी छाया में उसका पालनपोषण हुआ था। किन्तु हृदयहीना मामी के अत्याचारों का शिकार उसे प्रायः होना पड़ता था, विशेषतः मामा की अनुपस्थिति में । एक दिन उसके मामा हरिनाथ बाबू जब कहीं बाहर गये थे, मामी से तिरस्कृत होकर अपने पड़ोस के दत्त-परिवार में श्राश्रय लेने के लिए बाध्य हुई। घटना-चक्र से राधामाधव बाबू नामक एक धनिक सज्जन उसी दिन दत्त परिवार के अतिथि हुए और वासन्ती की अवस्था पर दयार्द्र होकर उन्होंने
उसे अपनी पुत्र-बधू बनाने का विचार किया ।
तीसरा परिच्छेद
नदी के तट से कुछ दूरी पर ज़मींदार राधामाधव वसु मित्र से मुलाकात
__ की ऊँची कोठी उस अञ्चल की शोभा बढ़ा रही थी। र्षा-ऋतु का समय था। यमुना या कोठी की तेज़ रोशनी से सड़क जगमगा उठी थी। राधाब्रह्मपुत्र लबालब भर उठा था। माधव बाबू उस समय सन्ध्याकाल के शीतल पवन का साँझ हो गई थी। दक्षिण-दिशा सेवन करने के लिए गये थे। दरबान लोग भला इस की ठंडी हवा चल रही थी और अवसर से लाभ क्यों न उठाते ? फाटक के पास श्राकर
यमना की तरङ्गों के स्पर्श से और उन सबने जमघट लगा दिया। किसी की भाँग घट रही भी अधिक ठंडी होकर जगत् को स्निग्ध कर रही थी। थी तो कोई तुलसीदास के दोहों की श्रावृत्ति कर रहा था। देखते-देखते कालिमा का प्रावरण चारों ओर फैल गया, ठीक उसी समय अन्धकार को चीरती हुई एक मनुष्यसमस्त दिङमण्डल अन्धकार से आच्छादित हो उठा। मूर्ति फाटक की ओर बढ़ रही थी। सन से बोझी हुई नौकायें नदी के प्रशान्त वक्ष पर अब एकाएक माधवसिंह सरदार की दृष्टि आगन्तुक पर तक विचरण कर रही थीं, किन्तु अन्धकार अधिक बढ़ पड़ी। उन्होंने पञ्चम स्वर से पुकार कर पूछा-कौन है ? . जाने पर अभीष्ट मार्ग का निर्णय करने में असमर्थ होने ज़रा-सा आगे बढ़कर आगन्तुक ने बँगला में पूछाके कारण वे धीरे-धीरे तट की ओर बढ़ने लगीं। समीप ही क्या कर्त्ता बाबू घर में हैं ? . दस-बीस नौकायें बंधी हुई थीं। वे सभी सन से बोझी दरबान सब हिन्दुस्तानी थे, वे लोग बँगला नहीं हुई थीं। चारों दिशायें निस्तब्ध थीं, कहीं से किसी प्रकार समझ पाते थे, इससे आगन्तुक के प्रश्न का श्राशय वे . का भी शब्द नहीं आ रहा था । कहीं कहीं दो-एक किसान नहीं समझ सके । अतएव उत्तर से वञ्चित रहना उसके लिए खेत का काम समाप्त करके अन्धकार का विदीर्ण करते स्वाभाविक था । परन्तु उस बेचारे की कठिनाई का अन्त हुए घर लौट रहे थे।
इतने में ही तो था नहीं। लोगों ने उसे चारों ओर से
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