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सरस्वती
[भाग ३८
इधर से जा रहा है उस पर सोचा हुया प्रभाव पड़े तो दीन्ही, मनसा विजय विश्व कह कीन्हीं।" उन देशों में स्वाभाविकता विदा हो गई होती। अगर उससे यह न कहा जहाँ पर्दे की प्रथा नहीं है, वहाँ विवाह के पहलेवाले गया होता कि उसके औचक सिर घुमाकर देखने का किसी समय को अानन्द और विलास का समय मानते हैं। पर यह प्रभाव पड़ा तो उसे मालूम भी न होता कि क्या एक की मँगनी हुए बहुत दिन हो गये थे। मित्रों ने हुआ था।
पूछा कि कहो, कब शादी होगी। उसने उत्तर दिया कि ___ यहीं कठिनाइयों का अन्त नहीं हो जाता है। इसका यही सोच रहा हूँ कि अभी तो यहाँ अाकर दिल खुश कर निर्णय करना क्या कोई सहज काम है कि जीवन की किन लेता हूँ और शादी हो जाने पर कहाँ जाया करूँगा। इन किन घटनाओं का किस तरह उल्लेख किया जाय। या तो वाक्यों से वहाँ के समाज के संगठन पर अ यह हो जायगा कि “निज कबित्त केहि लागन नीका, सरस पड़ता है। मायकेल फरेडी (बिजली के आविष्कारकर्ता) होय अथवा अति फीका" या उन घटनाओं का ज़िक्र भी के एक जीवनचरित लिखनेवाले को यह बड़ा दुख रहा नहीं होगा जो दूसरों की दृष्टि में महत्त्वपूर्ण समझी जा कि उसके हाथ वह मसाला न आया जिससे उनके वैवाहिक सकती हैं। जीवन-चरित एक तरह का स्मरण-लेख है, जीवन के पूर्ववाले समय के किस्से गढ़ने का मौका मिलता। परन्तु इस तरह का स्मरण-लेख नहीं है कि “मैं मेल-ट्रेन जिस जीवनचरित में ऐसे किस्सों या रोचक घटनाओं की से घर वापस गया। गर्मी बहुत थी। पंखा और ख़स की कमी रहती है उसकी जनता में मांग नहीं होती है। शायद टट्टी होने पर भी पसीना निकल रहा था और मैं घंटों चित इसी वजह से एक अँगरेज़ लेखक ने लिखा है कि सत्यता पड़ा रहा।” यह क्या है ? वास्तव में यह किसी भी दृष्टि से कहीं अधिक अर्द्धसत्यता मनोहारी होती है। अर्द्धसत्यता से कुछ नहीं है। ऐसे स्मरण-लेखों के प्रकाशित होने से की चाट जिनमें होती है वही पुस्तकें आज-कल हाथोंहाथ किसी का क्या लाभ हो सकता है----किसी और का लाभ बिकती हैं, और जिन पुस्तकों में हृदयगत भाव सच्चे और तो दूर रहा अपना ही क्या लाभ हो सकता है ? इस तरह सीधी तरह से प्रकट कर दिये गये होते हैं वे पुस्तकें छापनेके लेख का मूल्य उस काग़ज़ के मूल्य से भी कम होगा वालों की दृष्टि से अच्छी बिकनेवाली नहीं कहलाती हैं। जिस पर यह लिखा गया होगा। प्रत्येक आत्म-चरित जो कम से कम आत्मचरित लिखनेवालों को अपने पथ से
आत्म-चरित कहला सकता है, इतिहास का भी काम देता नहीं हटना चाहिए, यद्यपि कुछ लोगों का यह मत है कि है। कम से कम यह तो पता चल ही जायगा कि अमुक “वह न कहो जो तुम्हें कहना है, बरन वह कहो जो लोग व्यक्ति के सामने कैसे धार्मिक, सामाजिक और राजनैतिक सुनना पसन्द करते हों।" प्रश्न उपस्थित थे और उन पर उसके क्या विचार थे। इन सब कठिनाइयों के होते हुए भी मनुष्य को अपना यदि उन विचारों पर लेखक ने कोई राय नहीं प्रकट की तो आत्मचरित लिखना चाहिए। यदि इसके लिखने में एक बहुत बड़ी कमी रह जायगी। समय बदल रहा है और सावधानी से काम लिया जाय तो लोगों का इससे बड़ा स्वभावत: उसी के साथ दृष्टिकोण बदल रहा है। नहीं तो उपकार होता है-आँखें खुल जाती हैं। "पहले से सचेत भारतवासियों को अपने सम्बन्ध में एक शब्द भी लिखना हो जाना सशस्त्र हो जाना है," जैसा कि अँगरेज़ी में एक नहीं पसन्द था और उसी का कारण यह है कि हमारे कहावत है। निज जीवन वृत्तान्त कहने में साहित्यिक कला साहित्य की वह शाखा अपूर्ण रह गई है जिसकी पूर्ति केवल की बड़ी आवश्यकता नहीं होती। यह तो बहुत अच्छा अात्म-चरितों से ही हो सकती है।
है ही कि साहित्य का भी स्वाद हो, परन्तु यदि न हो तो अपने सम्बन्ध के कुछ ऐसे विषय हैं जो अपने लिखने कुछ हर्ज भी नहीं है। किसी भी चीज़ पर वार्निश करने से मनोरंजक नहीं होंगे, जैसे विवाह । यदि तुलसीदास जी से उसका प्राकृतिक रंग जाता रहता है। यह प्रायः देखा की लेखनी महाराज रामचन्द्र के हाथ में होती तो शायद गया है कि सीधे और सादे ढंग से कहा हा अनुभव वे यह न लिख पाते कि "कंकण किंकिणि नूपुर धुनि सुनि, अधिक प्रभावशाली होता है। बाज़ों का यह कहना है कि कहत लषण सों राम हृदय गुनि । मानहु मदन दुंदभी आत्मचरित मनोरंजक नहीं होते। बात यह है कि जैसा
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