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सरस्वती
[भाग ३८
यह कह कर वह उठा और अज़ीज़ की कमर पर ज़ोर की असहाय अवस्था का भान होता है। धूलि से मैले से थप्पड़ मारकर चला गया।
और फीके बादलों में एक जंगली कबूतर उड़ता हुआ
गया और उनके धूमिल रङ्गों में छिप गया। दूर से मिलों हमारे मुहल्ले की मस्जिद में हसानुर्रहीम अज़ान दिया की सीटियों और रेल के इञ्जनों की आवाज़ों पा रही थीं। करते थे । ये डील-डौल के भारी और मज़बूत थे । रङ्ग शहर की ऊँची ममटियों और मीनारों से कबूतर उड़ते थे बिलकुल काला था। डाढ़ी मेंहदी से लाल रहती, सिर या मँडरा-मँडराकर उन पर बैठ जाते थे। दूर-दूर जिधर तामड़ा था, लेकिन कनपटी और गर्दन के पीछे तक बाल दृष्टि जाती थी, गन्दी, विकृत, मैली-कुचैली इमारतें और के पट्टे पड़े रहते थे। उनके माथे पर ठीक बीच में एक उनकी छतें दिखाई देती थीं। दूर-दूर जिधर आदमी देख बड़ा-सा गड्ढा पड़ गया था, जिसका रङ्ग राख का-सा सकता था, जीवन में उदासीनता और निरुद्यमता का भान था, और दूर से देख पड़ता था। वे मेरी खिड़की होता था। कहीं-कहीं कोई दुमज़िला या तिमञ्जिला मकान के सामने से खकारते हुए जाया करते थे। वे गाढ़े का बन रहा था और उसकी पाड़े आसमान और निगाह के ढीली मोरियोंवाला पायजामा और गाढ़े का कुर्ता पहने बीच एक रुकावट खड़ी करती थीं, लेकिन बाँसों और रहते और उनके कंधे पर एक बड़ा लाल रङ्ग का छपा बल्लियों के रङ्ग देखने में कोई बुरे मालूम न होते थे। वे हुआ रूमाल पड़ा होता था। उनकी आवाज़ में एक ऐसा बादलों के रंगों में मिलकर मध्यम और हलके दिखाई देते करारापन, गर्मी के साथ वह नर्मी थी जो आदमी को थे। उसी वक्त हसानुर्रहमान के खकार की आवाज़ आई कम मिलती होती है। उनकी आवाज़ दूर-दूर पहचानी और फिर उनकी उठती हुई सुनहरी आवाज़ शून्य में फैल जाती थी, और कई मुहल्लों तक पहुँचती थी। अजान गई। यह आवाज़ कुछ ऐसी निराश करने के साथ ही से पहले उनकी खकार भी बहुत दूर से सुनाई देती थी। साथ सान्त्वना देनेवाली थी कि मेरी निराशा दुःखमयी पहले-पहल तो उनकी आवाज़ से उस प्रकार का संकेत गम्भीरता में परिणत हो गई। उस अावाज़ से कोई होता था जो मुसलमानों को नमाज़ को बुलाती है, फिर महत्ता वा बड़प्पन न टपकता था, बरन उससे जीवन की जब अन्त होने का अाता तब आवाज़ की झङ्कार में कमी अस्थिरता का भान होता था—इस बात का कि जगत् होती और उनके शब्द बल खाते हुए एक सन्नाटा और क्षण-भंगुर है और उसके चाहनेवाले कुत्ते--इस बात का शान्ति पैदा करते हुए आकाश में खो जाते। लोग कि जीवन इसी प्रकार से तुच्छ और सारहीन है जिस प्रकार हसानुर्रहमान को हज़रत बुलाल हबशी कहते थे और कि बादलों के ऊपर छाई हुई धूलि या धुआँ । अपने इन इस तरह की बहुत-सी बातें दोनों में ही एक-सी पाई असम्बद्ध विचारों में निमग्न हुअा मैं अज़ान को सुनता जाती थीं। उनकी गीली आवाजें और उनका रहा। यहाँ तक कि वह ख़त्म होने को आगई और "हई काला रङ्ग।
अलस्सला, हई अलस्सला" की खामोशी पैदा करनेवाली ___ एक बार मैं अपने मकान की छत पर अकेला बैठा अावाज़ कानों में गूंजने लगी। फिर "हई अललफ़िला, था। आसमान पर हलके-हलके बादल बिछे हुए और हई अललफ़िला" की आवाज़ सन्नाटा छाती हुई दुनिया सूरज की रोशनी उन पर पीछे से पड़ रही थी। उनमें की क्षण-भंगुरता का विश्वास दिलाती, एक लम्बी तान हलकी सी फीकी-फीकी रोशनी देख पड़ती, क्योंकि वाता- लेकर, धीमे स्वरों में होती, धीरे-धीरे आश्वासन-सा देती वरण साफ़ न था और शहर की गर्द और दूर की मिलों हुई इस प्रकार ख़त्म हुई कि यह जान न पड़ता था कि का धुओं हवा में फैला हुआ था। शहर का हल्ला-गुल्ला आवाज़ रुक गई है या सारी दुनिया पर ख़ामोशी फैली है। मक्खियों के गुनगुनाने की तरह सुनाई दे रहा था। और वह गहरी और व्याप्त निस्तब्धता जिससे मालूम होता था सारे आकाश-मण्डल में एक हृदय को टुकड़े-टुकड़े करने- कि दुनिया के परे, कहीं बहुत दूर एक दुनिया है, जिसमें वाली निराशा थी—वह दुख की अवस्था जो हमारे शहरों आदि और अन्त दोनों एक हैं, और यह हमारी दुनिया की एक खास पहचान होती है और जिसमें घृणास्पद जीवन तुच्छ और अस्मरणीय है। आवाज़ इस प्रकार शून्य में खो
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