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सरस्वती
का अवसर मिला और उस समय भी प्रथम वार्तालाप के समय के विचारों की पुष्टि हुई। लाला जी को नौकरी के सिलसिले में कई स्थानों में रहना पड़ा था । अपने समय के विशेष लोगों से उनका निजी संपर्क भी रहा था। इस कारण उन्हें अनेक ऐसी बातों की जानकारी थी जो वर्तमान हिन्दी साहित्य का इतिहास समझनेवाले के लिए बहुत ही अमूल्य थीं। मुझे पूरा यकीन है कि यदि लाला जी ने १९वीं शताब्दी के अन्तिम अधीश के हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखा होता तो उनकी प्रसिद्ध रचनाओं में उसका एक विशेष स्थान होता । भारतेन्दु के मरने पर उनके पत्र में अनेक कवितायें छपी थीं, परन्तु उनके सम्बन्ध में लिखी गई सबसे अधिक प्रसिद्ध होनेवाली कविता लाला जी की ही लिखी थी। यह लाला जी ने मुझसे कहा था। जब वे पिछली बातों का ज़िक्र करते तब एक चित्र-सा खड़ा कर देते, और जहाँ तक उन बातों से उनका सम्बन्ध रहा होता उसका भी जिक्र करते । स्पष्ट मालूम पड़ता था कि जहाँ भी वे रहे होंगे, रहे होंगे पहली ही लाइन में । उनकी गम्भीरता और सूक्ष्मता के आगे लोगों को उनके सामने नत होना पड़ता रहा होगा, और कदाचित् उन्हें अपना अग्रसर करने में लोगों को श्रानन्द और सन्तोष भी होता रहा होगा। ये बातें उनकी ओर से तनिक भी ध्वनित नहीं होती थीं। सच बात तो यह है कि उनके मुँह से मैंने किसी की भी बहुत तारीफ़ नहीं सुनी । कुछ लोगों का कहना है कि लाला जी स्वयं अपनी बहुत
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[ स्वर्गीय रायबहादुर लाला सीताराम । ] था। उनकी बातों से मैंने थोड़ी ही देर में समझ लिया कि साहित्य सम्बन्ध में भी उनके निर्णय बिलकुल डिप्टी कलेक्टराना थे । वे बातें दो-टूक कह देते थे और आगे बढ़ जाते थे। जब मैं थोड़ी देर चुप रहता तब वे कोई नई बात छेड़ देते ।
उनसे थोड़ी ही देर बातें करने के बाद उनके व्यक्तित्व के सम्बन्ध में कई ख़ास बातें प्रत्यक्ष हो जाती थीं। मुझे लाला जी से एक बार और देर तक बातें करने Shree Sudharmaswami Gya handar-Umara, Surat
[ भाग ८३
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