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संख्या ४]
एक रूखी हँसी हँस कर सन्तोष ने कहा- बात किस तरह करता हूँ ? क्या तुम अब भी समझ रहे हो कि मैं जो कुछ कह रहा हूँ वह मिथ्या है ?
अनिल ने दुःखमय स्वर में कहा- क्या मैं यही बात कह रहा हूँ? मेरा कहना तो यह है कि जब तुमने विवह ही कर लिया तब अब इस तरह की बातें क्यों कर रहे हो ?
शनि की दशा
रुँधे हुए कण्ठ से सन्तोष ने कहा - भूल -भूल ! भूल की है अनिल । मैंने जबरदस्त भूल की है। परन्तु जो कुछ हुआ वह तो हो गया। अब मैं उस पाप का प्रायश्चित्त करने का प्रयत्न कर रहा हूँ ।
यह सुनकर अनिल सोचने लगा तो क्या सन्तोष ने सचमुच अपनी इच्छा के विरुद्ध ही विवाह किया है या यो हो निरर्थक बातें बना बना कर मुझे भुलावे में डाल रहा है ? परन्तु मुझे भुलावा देने से उसे क्या लाभ होगा? इससे तो कोई विशेष फल हो नहीं सकता। उसने जो कुछ कर डाला है वह अब लौटने को नहीं है । तब भला वह क्या करेगा? वह बेचारी निरपराध बालका क्या करेगी ? उच्च शिक्षा पाकर भी सन्तोष यह कैसा मुख का सा आचरण करने जा रहा है ? इसका परिणाम क्या होगा ? इसे यदि समझायें तो क्या यह सुनेगा ? उसके रंग-ढंग से तो ऐसी आशा पाई नहीं जाती । तो भला वह किस प्रकार इस संकल्प का परित्याग करने के लिए बाध्य किया जा सकेगा ? यह सब वह कुछ भी निश्चय नहीं कर सका ।
सन्ध्या समय की शीतल और मन्द मन्द वायु आकर उन दोनों के शरीर पर पंखा भल रही थी सन्तोष 1 सोच रहा था, ग्रहा ! मेरे शरीर के भीतर भी यदि यह हवा इसी तरह की शीतलता उत्पन्न कर सकती ! परन्तु कदाचित् यह ज्वाला शीतल होनेवाली नहीं है। शीतल कैसे हो? मैंने तो स्वयं अपने हाथ से ही कालकूट का भक्षण किया है। चिरदिन तक मुझे उस विप की ज्वाला से जर्जरित होना पड़ेगा। इससे मेरा छुटकारा नहीं है । यह संसार सहानुभूति से विहीन है । यह मेरा दुःख नहीं समझ सकेगा । अपने मन की बात यदि किसी से कहूँगा तो भी वह मेरे प्रति घृणा का ही भाव प्रकट करेगा, दया न प्रदशित करेगा ।
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सन्तोष इसी प्रकार की विचार धारा में तल्लीन था । एकाएक उसे वह समय याद आया जब उसने अपने मन में कहा था- यदि श्रावश्यकता पड़ी तो सुषमा के लिए मैं पिता के ऐश्वर्य तक का परित्याग करने से मुँह न मोडूंगा। यह बात मन में आते ही सन्तोष के दुःख की सीमा न रही। वह मन ही मन कहने लगा- श्राज मेरा वह अभिमान कहाँ है? उस दिन क्या मैं यह समझ सका था कि दपहारी एक दिन इस तरह से मेरा दर्प चूर्ण कर देंगे ?
दोनों की नीरवता भंग करके सन्तोष ने कहा- अनिल, रात हो गई है। चलो, अब घर चलें ।
गैस की जगमगाती हुई रोशनी में सन्तोष के उदासऔर सूखे हुए मुंह की ओर ताक कर अनिल ने कहासन्तोष, बतलाने में यदि तुम किसी प्रकार की हानि न समझो तो बतलाओ भाई कि तुम्हें किस बात का क्लेश है ।
रुँ हुए कण्ड से सन्तोष ने कहा- अनिल, किस तरह समझाऊँ भाई मुझे बड़ा कष्ट है। ?
अनिल उसके गले से लिपट गया। वह गम्भीर स्वर में कहने लगा- तुम पढ़े-लिखे हो, पुरुष हो । तुम्हें क्या इतनी ही सी बात में अधीर हो जाना चाहिए भाई ?
सन्तोष ने अनिल के कन्धे पर मस्तक रख दिया। श्रमुखों से हुए कएड से वह कहने लगा- यह जरासा कष्ट नहीं है अनिल में समझता हूँ कि इसकी
रुँधे
तुलना...।
एक लम्बी साँस लेकर अनिल ने कहा- छिः ! भाई, इस तरह की बात मन से निकाल दो। बाद का कहीं कोई अनर्थ न कर बैठा तुम्हें हुआ क्या है ? जरा बतलाओ तां ।
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सन्तोष ने कम्पित कण्ठ से कहा- अनिल, मैंने तुम्हें उस दिन से बड़े भाई के ही समान
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जिस दिन देखा है मानता आया हूँ । तुमसे कोई बात तुमसे कोई बात छिराऊँगा नहीं । छोटा भाई समझ कर मुझे क्षमा कर देना। परन्तु एक बात है अनिल तुम्हारी बहन को छोड़कर मेरी और कोई स्त्री नहीं है मेरे हृदय में सुषमा को छोड़कर और किसी के लिए भी स्थान नहीं है । सुनो अनिल, अपने आपको अपराधी समझकर अपने मन के साथ मैंने बहुत बुद्ध किया है, परन्तु उसे अपने वश में नहीं कर सका ।...... वह कुछ कह नहीं सका ।
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