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हात-पारहास
कांग्रेस की प्रतिस्पर्धा में खड़े होकर हारने पर भी राष्ट्रपति पंडित जवाहरलाल नेहरू का चित्र करीब जिनकी ज़मानतें ज़ब्त नहीं हुई हैं, उनसे भी बढ़कर भाग्य- करीब रोज़ या हर हफ्ते में छापेंगे। महात्मा जी का भी शाली मैं हूँ; क्योंकि 'सरस्वती' के पाठकों से बहुत दिनों अदबदाकर कहीं छाप देंगे। कौंसिल की बैठकें शुरू हुई। के बाद होली के अवसर पर आज भेट हो रही है। होली बस श्रीसत्यमूर्ति, श्रीभूलाभाई और पंडित गोविन्दवल्लभ पन्त के ज़माने में बिछुड़े साथियों का मिलन बड़ा ही सुखद के ब्लाकों पर अाफ़त श्राई । अम्याँ, इन सबको तो हिन्दीप्रतीत होता है।
पाठक कई बार देख चुके हैं, नाहक जगह क्यों ख़राब xx
करते हो ? सम्पादकी करते हो या बला टालते हो ? होली में हिन्दी के अख़बार बे-नथे बैल हो जा जाते x x
x हैं। सम्पादक बन जाते हैं म्युनिसिपैलिटी के भैंसे । कल- गत महीनों में एक मासिक पत्र ने एक दैनिक के कत्ता में 'हिन्दी-वंगवासी' और बम्बई में 'श्रीवेङ्कटेश्वर- विषय में ठीक लिखा था--"दैनिकों में इसका वही स्थान समाचार' चालीस साल के पुराने चित्र और कार्टून निका- है जो भारत की संस्थानों में 'वर्णाश्रम-स्वराज्यसंघ' का । लेंगे। रङ्गीन रोशनाई का उपयोग बहुत लोग करेंगे, मगर यह प्रूफ़रीडिङ्ग का रिकार्ड है। हिन्दी-टाइप की उत्पत्ति पाठकों के सामने पुता हुआ चेहरा ही आवेगा। एक अक्षर से आज तक शायद ही कोई पत्र इतना अशुद्ध छपा हो।" भी साफ़ न रहने पावेगा।
किन्तु यह सार्टिफिकेट भी मौजीराम को राह पर न ला
सका । अब भी वही रफ्तार है। हिन्दी के दैनिक और साप्ताहिक प्रायः पर्व-त्योहार पर x
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x रङ्गीन छपाई किया करते हैं। कितने ही पाक्षिक और फ़रीडिङ्ग पर तो बहुत ही कम दैनिक और साप्ताहिक मासिक भी अपना चोला रँग लेते हैं। अगर अक्षरों की ध्यान देते हैं। बहुत-से मासिक भी इस कला का गला जान बच भी गई तो चित्र नहीं बच पाते। वे अच्छी तरह टीपते हैं। एक-एक पत्र के एक ही अंक में सैंकड़ों अशुद्धियाँ हलाल हो जाते हैं।
भरी रहती हैं । विज्ञापनों के प्रूफ़-सशोधन का तो नियेम ही x x
x नहीं है । हिन्दी-पाठक भी मक्खयों से भरी थाली चट बिना पर्व-त्योहार के भी कुछ लोग लाल-हरी रोशनाई कर जाने के आदी हो गये हैं । यह अघोर-पन्थ हिन्दी में में छपाई करके बुद्ध पाठकों पर जादू डालना चाहते हैं। बीभत्स-रस को मकरध्वज का पुट दे रहा है। मगर जादू उलट पडता है-सभी चित्र सिर्फ धब्बे बन जाते x x
x x हैं--पंक्तियों पर पुचारा पड़ जाता है- पाठक अपने फंसे भाषा का श्राद्ध करने का ठीका भी हमारे अख़बारों रुपयों को धिक्कारते हैं।
को ही मिला है। इने-गिने दैनिक और साप्ताहिक ही x x x x भाषा पर कुछ ध्यान रखते हैं, अधिकांश तो अन्धाधुन्ध ___पुते हुए चित्रों से कलेवर भरनेवाले बहुत-से अख़बार दौड़ लगाते हैं । नये सम्राट के लिए दर्जनों पत्रों ने 'षष्ठम हिन्दी में पैदा हो गये हैं। अनावश्यक चित्रों से खोगीर जाज' लिख मारा। अभी तक वे चेते नहीं हैं, वही लीक की भरती करके सचित्र कहलाने का हौसला पूरा करते हैं। पीट रहे हैं । खैर, 'षष्ठम' के लिए संस्कृतज्ञ होना आवश्यक तब भी घाटे का रोना रोने में टुक नहीं शरमाते। ... है, जो सब हिन्दी-सम्पादकों के लिए सम्भव नहीं माना जा
x सकता। पर 'छठवें जार्ज' लिखनेवालों को 'अंडमन'
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