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कुछ नहीं जानता । अन्त में क्या वह फिर से विवाह करके समाज के सामने आपका ऊँचा मस्तक नीचा कर देगा ? और अधिक क्या लिखूँ । आप और भाभी जी मेरा प्रणाम स्वीकार कीजिएगा । बहू को मेरा स्नेहपूर्ण ग्राशीर्वाद कहिएगा । उसके लिए मैं बहुत उत्कण्ठित हूँ । इस विषय में अधिक लिखना निरर्थक है । बहू को कह दीजिएगा के उसकी चिट्ठी का उत्तर शीघ्र ही दूँगी । इति ।
आपकी स्नेहपात्री महामाया ।"
देवी उपा करती समाविष्कृत स्वमाया या रही, दिवि संभवा जग में प्रकट महिमा महा दिखला रही । द्रोही तमीचरभूत, अप्रिय अन्धकार भगा रही, कर गन्तृतम वन-पथ प्रकाशित चेतना फैला रही ॥ ऊषे ! जगे कल्याण हित हम आज हे महिमामयी ! सौभाग्य श्रीनिधि दो हमें हे देवि ! संतत नित नई | श्रद्भुत अतुल धन ग्रन्न -जन से नित हमारे गृह भरो, मानवहितैषिण ! यश हमारा विश्व में विश्रुत करो || प्रारम्भ जग में देवगण सम्बन्धित करती हुई,
अन्तरिक्ष समस्त निज आलोक से भरती हुई । अवलोकनीया श्री उषा की रश्मियाँ वे श्रा रहीं, देखा मरणा विविधवर्णा छवि चतुदिक छा रहीं ॥ जोते हुए स्यन्दन स्वयं प्रति दूर से आती हुई, श्रवलेोकती सर्वत्र ही मानव-चरित जाती हुई । स्वर्लोक- दुहिता श्री उषा रानी अखिल संसार की, है गई क्षण में ग्रहो सब पञ्च वसती पार की ॥
सरस्वती
[ भाग ३८
वसु महोदय बहन का पत्र पढ़कर चिन्ता में पड़ गये । क्या करना चाहिए, यह वे किसी प्रकार ठीक ही न कर सके । कुछ देर तक वे किंकत्तव्यविमूढ होकर बैठे रहे। बाद को उन्होंने निश्चय किया कि तार देकर सन्तोष को बुला लेना चाहिए। श्राने पर उसे समझाने का प्रयत्न किया जाय । देखें, वह क्या कहता है । उन्होंने अर्दली से तार का एक फ़ार्म मँगवाया और उस पर सन्तोष को घर आने को लिखकर उसे तारघर भेज दिया ।
उपा
लेखक, श्रीयुत रामेश्वरदयाल द्विवेदी
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श्रारूढ़ हो वर वाजिनी पर रवि-प्रिया यह श्रा रही, धन-धान्य भरती विश्व में वरदान सुख का ला रही । है क्षीण करती आयु प्रतिदिन प्राणियों की जा रही, ऋषि संस्तुतामा अमित है मेदनी में छा रही ॥ वे रङ्ग रञ्जित जगमगाते अश्व है दिखला रहे, देवी प्रभापूर्ण उषा को जो गगन में ला रहे । है शुभ्रवण चमचमाते स्वर्ण रथ पर या रही, यजमान जैन के अर्थ अति रमणीय धन है ला रही ॥ सत्या सुपूज्या धनवती देवी महामहिमामयी, है सत्य पूज्य वदान्य देवों के सहित यह आ गई । तमपूर्ण गोचर भूमि दुर्गम स्वप्रभा से भर रही, गोमण्डली भी है रंभाती देवि स्वागत कर रही ||
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ऊषे हमें सुत-धन तथा अन्नाश्व-गो धन दान दो, जिससे हमारे यज्ञ को नरलोक में निन्दा न हो सन्तत शुभाशिष से हमारी देवि ! संरक्षा करो, ( मङ्गलमयी मङ्गल करों से मानवों के घर भरो) ॥** * ऋग्वेद की उषा-सम्बन्धी कुछ ऋचाओं का अनुवाद |
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