________________
• संख्या ४ ]
. रायबहादुर लाला सीताराम
आदत सी हो गई है। भोजन के सम्बन्ध में भी वे पराधीन
"राय
मिट/लाल—-पूर्वपुरुष—१४,०००)- अलफ्रेड
नहीं थे | बहुत दिनों से वे स्वास्थ्य रक्षा के लिए दलिया पर पार्क - ६८४ ) वार्षिक -- । १५८६ के लगभग - २ ही गुज़र कर रहे जिसे वे स्वयं आसानी से पका लिया वर्ष बाद वीरबल - गंगादास पुत्र महेशदास । मुंशी करते थे। लाला जी ने मुझसे बतलाया था कि उन्हें मालूम कालीप्रसाद कुलभास्कर - १८७६ - ८६" का तारतम्य मैं नहीं कि उन्होंने ग्राम कब खाया था। ग्राम उनके बिलकुल नहीं लगा सकता | मुवाफ़िक नहीं पड़ता था। पिछले आठ महीनों में संसार के सबसे प्रिय प्राणियों को खोकर मृत्यु की निकटता का जितना बोध हुआ है, उतना उस समय नहीं था । लाला जी का स्वास्थ्य और स्वास्थ्य-रक्षा के लिए उनका संयम देखकर यही मालूम पड़ता था कि उन्हें कम-से-कम अभी २० वर्ष और जीना चाहिए, नहीं तो उसी दिन मैं वह सब बहुत कुछ बातें पूछ और लिख लेता जो सदा के लिए उनके साथ चली गई * अफ़सोस तो यह है कि उस दिन उनके प्रारम्भिक जीवन के सम्बन्ध में मैंने जो दो-एक बातें लिख भी ली थीं, पर उनका ठीक प्रसंग नहीं द्या पाता । +
* श्रीयुत हरिकृष्ण जौहर (कलकत्ता) और बाबू गंगाप्रसाद गुप्त (बनारस) ऐसे व्यक्ति हैं जिनसे तत्कालीन साहित्यिकों के सम्बन्ध में अनेक श्रमूल्य बातें जानी जा सकती हैं। यदि ये लोग अपना कुछ संस्मरण लिखें तो बड़ा हित हो ।
+ लाला जी के पुराने मित्रों में रायबहादुर पंडित रामसरन मिश्र एम० ए०, रिटायर्ड इन्स्पेक्टर आफ स्कूल्स भी हैं । यह मुझे मिश्र जी से मालूम हुआ था और लाला जी ने भी इसकी पुष्टि की थी। संभवतः लाला जी के सम्बन्ध में मिश्र जी भी कुछ प्रकाश डाल सकें ।
सदा व्याधियाँ घेरे रहतीं, बाधाओं का कौन ठिकाना ? दुख ने ठान लिया जीवन कोदिन प्रति और कलपाना ॥
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
सन्ध्या क़रीब थी, और हम लोगों के उढने का समय पास श्राता जा रहा था। चलते-चलाते जब कुटुम्ब पर भी कुछ बातें श्राई तत्र लाला जी ने बतलाया कि उनकी सहधर्मिणी जा चुकी हैं। वे कहने को तो यह बात बहुत अविचलित भाव से कह गये थे, पर कुछ पुरानी दुखदायी स्मृतियों के बिलकुल करीब पहुँचा जान अपने को सँभालने के लिए ही शायद यह शेर कह उस प्रसंग का बदल दिया
1
सब बलायें हो चुकीं 'गालिब' तमाम,
एक
मर्गे नागहानी और है ।
उद्गार
लेखक, श्रीयुत राजाराम खरे
३७१
समय ने बता दिया कि लाला जी ने ठीक कहा था । 'मर्गे नागहानी' सचमुच ही उनके लिए आख़िरी बला रह गई थी, जिसे थोड़े ही दिनों के बाद उन्होंने उसी खूबसूरती के साथ फेल दिया जैसे और बलाओं को । उस दिन लखनऊ में 'लीडर' पढ़ने के बाद भी मुझे उनका कहा यह शेर याद हो आया था, और श्राज भी याद है ।
इस प्रकार क्यों सता रहे प्रिय, मुझे पराजित कर न सकोगे !
को यह अभ्यास हो गयासुख होता किस भाँति भुलाना ॥
www.umaragyanbhandar.com