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सरस्वती
कुछ दिन बाद।
नया साल शुरू ही हो रहा था । कान्यकुब्ज इंटर मीडियेट कालेज, लखनऊ का मैदान । टेन्ट । अँगीठी। चाय की प्यालियाँ | सुबह ८ बजे । इलाहाबाद से गया ताजा लीडर | सबमे चुभती ख़बर भी लाला सीताराम की मृत्यु। मुझे कुछ स्मरण हो आया। दूसरी और अन्तिम और अन्तिम चार जब मैं लाला जी से मिला था तब उन्होंने मुझे तुलसीदास जी की एक तसवीर दी थी और उसके नीचे, जिस फ्राउनटेनपेन से मैं यह लेख लिख रहा है इससे, 'श्रीअवधवासी सीताराम' लिख दिया था । मैंने लखनऊ से वापस आने पर अपनी चिट्ठी-पत्री में उसकी खोज की, पर यह न मिली । कल वह अकस्मात् हाथ लग गई। उसकी पुश्त पर उस दिन की नोट की हुई दो-एक बातें और मिलीं।
सितम्बर सन् १९३५ में एक दिन बनारस के तत्कालीन शहर-कोतवाल ख़ाँ बहादुर चौधरी नवी अहमद साहब से कुछ अन्य बातों के अतिरिक्त साहित्यिक चर्चा भी रही । उन्हीं दिनों नागरी प्रचारिणी सभा, काशी, के दफ़र में एक बोरी हो गई थी और के कलाभवन कुछ अमूल्य चित्र ग्राम हो गये थे। तुलसीदास के चित्र के सम्बन्ध में चौधरी साहब ने ज़िक्र किया कि नागरी प्रचारिणी सभा का चित्र उस चित्र से भिन्न है, जो इलाहाबाद में जो इलाहाबाद में उन्होंने रायबहादुर लाला सीताराम के पास देखा था । मैंने लाला जी के पासवाला चित्र देखना चाहा। मैं ८ आक्टोबर सन् १९३५ को लाला जी से मिला। पहली चार और इस बार की मुलाकात में काफी दिनों का अन्तर पड़ चुका था । इसलिए मुझे अपना परिचय देना पड़ा । इस दर्मियान में लाला जी मेरे नाम से परिचित हो चुके थे । ‘विशाल भारत' में मेरी तिब्बत यात्रा के लेख वे पढ़ चुके थे तिब्बत के सम्बन्ध में उन्होंने बहुत-सी बातें पूछीं फिर 1 महन्त राहुल सांकृत्यायन के सम्बन्ध में पूछा । बोले—मेरा तो दृढ़ 'विश्वास है कि बुद्ध का अयोध्या-गमन हुआ था; पर सांकृत्यायन जो बुद्ध चर्चा में लिखते हैं, नहीं। अब जब वे इलाहावाद वें तो मुझे उनसे ज़रूर मिलाइए 1 इस
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* सन् ३५ के नवम्बर के शुरू में ही मैं गवर्नमेंट हाई स्कूल, देवरिया में काम करने चला गया । सन् ३६ की गर्मियों में जब प्रयाग लौटा तब सुना कि राहुल जी
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[ भाग ३८
वस्था में विद्या से यह लगन ! यह लाला जी के जीवन की एक विशेषता थी । और जब उन्होंने यह कहा - मुझे बतलाइएगा। मैं उनके पास चलूंगा और अपने मोटर पर उन्हें अपने घर लिवा लाऊँगा । - तब मुझे लाला जी
की विशेषता का और घना परिचय मिला। एक कट्टर सनातनधर्मी के लिए फिर से बौद्ध संस्कृति के प्रसार के लिए मर मिटनेवाले बौद्ध भिक्षु के प्रति इतना सम्मान भाव रखना बड़प्पन की निशानी है।
मुझे तो लाला जी के व्यक्तित्व का सबसे मूल्य अंश यही जान पड़ा। आज-कल बड़े पाये के भी लोग संस्कृति विहीन हैं। लाला जी में संस्कृति थी ऊँचे पैमाने की । और संस्कृति-युक्त होना श्राज-कल के शिक्षित भारतीय के लिए एक महान् भाग्य की बात है ।
चित्र के सम्बन्ध में बात आने पर लाला जी ने नागरीप्रचारिणीवालों से अपनी बड़ी खीझ प्रकट की । बोलेदेखो न, इन सबों ने हमारे देखो न, इन सबों ने हमारे तुलसी का मुँड़कर अपना तुलसी बना लिया है। — लाला जी के और सभा के तुलसी के शरीर, कुशासन, माला और बैठने के ढङ्ग में बहुत कुछ साम्य है । अन्तर केवल इतना ही है कि एक के तुलसी के दाढ़ी मूछ और जटा है और दूसरे के तुलसी इससे रहित हैं। लाला जी का कहना था कि सभावालों ने उन्हीं के तुलसी को अपना लिया है। पर अफ़सोस तुलसी के ले लिये जाने का उतना नहीं मालूम पड़ता था जितना कि उनके मुँड़े जाने का मुझे तो इस प्रसंग में प्रायः विनोद जान पड़ा, यद्यपि वह वैसा ही हलका और दवा-सा था जैसा । कि सदैव लाला जी का हास्य होता था ।
यद्यपि देखने में लाला जी इस बार भी पहले की ही तरह स्वस्थ थे, पर मुझे अच्छी तरह याद है कि इस बार जब मैंने उन्हें देखा था तब उनकी तबीयत जैसे कुछ गिरी हुई-सी थी । वे उन दिनों घर में बिलकुल अकेले रह रहे थे। केवल उनका नौकर साथ था पर उनका कहना था कि अपनी किताबों के साथ अकेले रहने की उनकी
तीसरी बार फिर ल्हासा पहुँच गये हैं। इस वर्ष जनवरी में एक दिन के लिए राहुल जी प्रयाग में थे; पर लाला जी नहीं रहे ! अतः लाला जी की राहुल जी से मुलाकात नहीं हो पाई। लेखक/
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