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रायबहादुर लाला सीताराम
(संस्मरण) लेखक, श्रीयुत राजनाथ पाण्डेय, एम० ए०
स्वर्गीय लाला सीताराम ने हिन्दी का जन्म और उसका अभ्युदय देखा ही नहीं है, किन्तु अपने जीवन के अन्तकाल तक वे उसके अभ्युत्थान में बराबर संलग्न रहे हैं। खेद है, हिन्दी के ऐसे महारथी के सम्बन्ध में हिन्दी में वैसे उपयुक्त लेख अभी तक नहीं छपे हैं। ऐसी दशा में, आशा
है, पाठकों को इस लेख-द्वारा लाला जी की गौरव-गरिमा का कुछ परिचय अवश्य प्राप्त होगा।
जाने में फायदा तो पर अब भी अंकित हो। उस नाम का आगे दूर तक Nove ज़रूर है, पर यह अभ्यास की बात साथ रहा। मेरी उम्र के लाख-लाख बच्चों ने उस कविता
होती है। कभी-कभी उन्हें याद को पढ़ा होगा, पर तब से लेकर अब तक पढ़ते-पढ़ते
9 करके कुछ राहत भी मिलती है। चले जाने का सौभाग्य या दुर्भाग्य उन सबको तो रहा न FROME स्मृति के संग्रहालय में १८ वर्ष होगा। फिर भी हज़ारों को उसकी लाइने सुदर न जाने
पहले के चित्र अब बहत कळ कितने-कितने गाँवों में अब भी याद होंगी। उसकी प्रथम धुंधले हो गये हैं, पर कुछ ऐसे हैं जो धुंधले हो-होकर लाइन यह थीभी बने हैं। उनमें से कुछ ये हैं
"बैरगिया नाला जुलुम जोर, तँह रहत साधु के मेस चौर ।" शहर से बीस मील दूर एक देहात का स्कूल; गज़-गज़
उन्हीं दिनों महावीरप्रसाद, मैथिलीशरण, रामचरित, भर चौड़े, नौ नौ गज़ लम्बे टाट के टुकड़े; काठ की छोटी- लेाचनप्रसाद, इन नामों से भी परिचय हुअा था, पर मुझे छोटी पट्टियाँ और उन्हें चमकाने में कालिख से पत गये यह कहने में कुछ भी संकोच नहीं है कि प्रथम दो नामों अपने हाथ और गाल; हाथ में हर वक्त बाँस की हरी को छोड़कर बाकी नामों का 'बैरगिया नाला' के लेखकपतली छड़ी लिये, पलटन का नीलामी लम्बा-चौड़ा कोट सा दूर तक निकट का संसर्ग नहीं रहा । इसके स्पष्ट पहने, बड़ी-बड़ी मूंछोंवाले मास्टर साहब और रोज़ एक कारण भी थे। साथ खड़े होकर कही जानेवाली-'हे प्रभो! अानन्द
xx दाता ज्ञान हमको दीजिए' वाली प्रार्थना।। ____ आज से १२ वर्ष पहले अँगरेज़ी स्कूल में मैं सातवें
उस समय अरिथमेटिक और ज़बान की पढाई में बहुत दर्जे का विद्यार्थी था। उस समय के चित्र बहत कुछ स्पष्ट मन लगता था। महीने दो महीने में भी शायद काई हैं। कम-से-कम हेड मास्टर साहब के गुस्से के समय के सवाल ग़लत होता हो । किताब के अधिकांश सवालों को काँपते होंठ और लाल-लाल कान तो शायद ही इबारत तक याद थी। अाज स्मृति के ख़ज़ाने में वे सब कभी भूलेंगे। गुम हैं। पर उस समय जो एक चीज़ याद थी वह अाज हमारी किताब में लाला सीताराम बी. ए. की लिखी भी ज्यों की त्यों याद है। ज़बान की किताब में एक 'अज-विलाप' शीर्षक एक कविता थी। उसकी पहली कविता थी। वह हमारे स्कूल के सभी लड़कों के ज़बान लाइन--'अहह फूलहू के तन लागत, है जो विवस प्रान
थी। मुझे उस कविता के नाते उसके नीचे लिखे नर त्यागत' तो अब भी याद है। उस कविता में रानी के उसके लेखक के नाम से भी कुछ अनुराग-सा हो गया। मर जाने पर राजा अज के शोक का वर्णन था। राजा लोगों उस नाम के छपावट के अक्षर जैसे अाँख के भीतरी पर्दे को अनेक रानियाँ होती हैं और एक-दो घट ही गई तो क्या ।
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