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संख्या ४ ]
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पर उस कविता के अज कुछ और ही राजा जान पड़े। उस समय पहली बार जान पड़ा कि पत्नी के मर जाने पर पुरुष की क्या दशा होती होगी । उस समय हरिहर लाल हमारे साथ पढ़ते थे । हम-वे पास-पास बैठते । वे इस कविता को अनेक चित्रों के रूप में समझते और मुझे समझाते थे। मैं उनकी चित्र कला की अनुरक्ति को प्रोत्साहित करता । मालूम नहीं, श्रज विलाप पर मेढ़ जी ने कोई चित्र बनाया या नहीं; पर 'ग्रज विलाप' की मेरी याद ज्यों की त्यों बनी हुई है। और अब तो कभी फिर से उसे पढ़ने की इच्छा होती है । बाद को मालूम हुआ कि लाला जी ने रघुवश का हिन्दी पद्यों में अंशत: अनुवाद किया था और यह उसी का एक श था । लाला जी ने कालिदास के और कई ग्रन्थों का अनुवाद किया था और व्यंग्य में उन्हें 'हिन्दी-कालिदास' की उपाधि मिली थी ।
सन् १९३० में बनारस के कीन्स इंटर्मीडियेट कालेज की लाइब्रेरी में लाला सीताराम की लिखी शेक्स पियर के कई नाटकों की हिन्दी अनुवाद की एक पुस्तक देखी । उस समय मालूम हुआ कि रायबहादुर लाला सीताराम डिप्टी कलेक्टर रह चुके हैं और अब प्रयाग में शान्तजीवन व्यतीत कर रहे हैं । हिन्दुस्तानी अफ़सरों में दायरे के बाहर जाकर काम करने की अपेक्षाकृत व भी कमी है। लाला जी की इस सम्बन्ध में विशेषता थी । X
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यूनिवर्सिटी के दिनों पर तो जैसे अभी सिर्फ़ एक ही रात का पदा हो । यूनिवर्सिटी के अपने एम० ए० के कोर्स में देखा तो वहाँ भी लाला साहब मौजूद थे । कलकत्ता यूनिवर्सिटी से छुपी लाला जी की कई किताबों में से एक हमें पढ़नी थी। और पढ़ाते थे पण्डित देवीप्रसाद जी शुक्ल । एक दिन लाला जी पर बात छिड़ी। जिन दिनों वे डिप्टी कलेक्टर थे, एक मुक़द्दमा कर रहे थे । अभियुक्त ने अपना मुकद्दमा कमज़ोर समझ कर डिप्टी साहब की भावुकता को प्रेरित करना चाहा । कवि का सबसे कमज़ोर पहलू उसका कविपन होता है । कविता के
रायबहादुर लाला सीताराम
* सुना है श्रीयुत हरिहरलाल मेढ़ प्रसिद्ध चित्रकार हो गये हैं और इन दिनों लखनऊ के श्राट्स कालेज में अध्यापक हैं । - लेखक ।
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कोड़े से चाहे उसे मार दीजिए, वह बुरा न मानेगा । अभियुक्त ने अपने बयान के बाद डिप्टी साहब को सम्बोधित कर एक दोहा कहा । डिप्टी साहब ने फ़ैसला दिया और दोहे का जवाब भी दोहे में। * उन्होंने अपराधी को क़ैद की सज़ा कर दी। वे ऐसे कवि तो थे नहीं ।
उस दिन के प्रसंग ने नाम से रूप की ओर प्रेरित किया। एक परिचित मित्र से पत्र लेकर मैं लाला जी से मिलने गया। मकान के ख़ास सड़कवाले दरवाज़े की दाहनी ओोरवाली छोटी कोठरी में हम लोग बैठे । लाला जी ने पहले देर तक हमारे सम्बन्ध में पूछा। फिर हमारे मित्र के सम्बन्ध में बोले- वे हमारे दोस्त हैं। असल में हमारे मित्र के पिता लाला जी के दोस्त थे और उसी नाते उनकी पहचान हुई थी; पर बाद में साहित्य-प्रेमी होने के कारण लाला जी ने उन्हें भी अपना निजी दोस्त बना लिया था । इस कारण उनकी पहचान में पिता का दोस्त होने की बुज़ुगियत से अधिक निजी दोस्ती की मात्रा थी । जिस समय हम बातें कर रहे थे, एक चपरासी एक बड़ा पैकेट लेकर आया। लाला जी उसे लेकर उठ पड़े । गली. में से होकर पिछवाड़े के फाटक से हम मकान के दूसरे हिस्से में आये | मुझे कुछ कुछ याद आता है, एक छोटा-. सागन है। वहाँ शाम तक हम लोग साहित्य के अनेक अंगों और व्यक्तियों के सम्बन्ध में बातें करते रहे । धीरे-धीरे अँधेरा हो गया। मैं लाला जी से बिदा लेमा चाहता था, पर वे अभी और बातें करना चाहते थे । भारतेन्दु, प्रतापनारायण, राजा शिवप्रसाद आदि के सम्बन्ध की अनेक व्यक्तिगत बातें उन्होंने कहीं। मालूम पड़ता था, जैसे उस सन्ध्या को लाला जी फूट पड़े थे और जैसे बहुत दिनों के बाद उन्हें कोई सुननेवाला मिला
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* शुक्ल जी भी एक छिपे ख़ज़ाना है । अनेक अमूल्य जानकारियाँ वहाँ दबी पड़ी हैं, पर उन्हें उभाड़ने के लिए, किसी धैर्यशील हिन्दी- प्रेमी को थोड़ी मेहनत करनी पड़ेगी । इन दोहों के प्रसंग का मैंने लाला जी से भी ज़िक्र किया था, पर उन्हें वे याद नहीं रहे थे । कुछ दिन हुए पूज्य शुक्ल जी से पूछा तब मालूम हुआ कि वे वहाँ से भी गुम हैं। उन दोहों में एक बड़ा स्निग्ध व्यंग्य था, जो लाला जी की खास विशेषता थी । लेखक ।
C.
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