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थे जारी ।
इस खाके दिलनशीं से, चश्मे हुए चीनो अरब में जिनसे होती थी श्रावकारी ॥
परन्तु श्रव
(चकबस्त )
सब सूर वीर अपने इस ख़ाक में निही हैं। टूटे हुए खँडहर हैं या उनकी हड्डियाँ हैं ।
(चकबस्त)
सरस्वती
दो अनन्त के बीच सान्त हूँ फिर भी क्यों कर गवं करूँ । अपने कश्मल इस अन्तर को प्रतिदिन पापां से और भरूँ । इसी लिए तो जग में निश्चय अवनति के ही गर्त पड़ा हूँ ||२|| मैं समुद्र
मैं समुद्र के कूल खड़ा हूँ
लेखक, प्रोफेसर धर्मदेव शास्त्री
मैं
के
समुद्र के कूल खड़ा हूँ ।
ऊपर देखूँ तो नभ अनन्त, नीचे वारिधि का नहीं अन्त । पक्षी होकर उड़ जाऊँ क्या ?
रत्नाकर क्या बन पाऊँगा ? मानस को इस विचिकित्सा मेंबस कुछ भी तो नहीं बढ़ा हूँ ||१|| मैं समुद्र के -
देखो सागर उमड़ रहा है मुझको अनन्त रस-लहरी मेंलेने को मानो उछल रहा है । पूर्ण तत्व से बिलकुल अवदित विस्मृति के घन-वन से आवृत, मैं तो बस यूँठ खड़ा हूँ ||३|| मैं समुद्र के
तथापि -
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यूनान, मिस्र, रोमाँ, सब मिट गये जहाँ से । अब तक मगर है बाकी नामोंनिशाँ हमारा || कुछ बात है कि हस्ती, मिटती नहीं हमारी । सदियों रहा है दुश्मन दौरे ज़माँ हमारा ||
[ भाग ३८
मैं रत्नों का नाम न जानू पण्डित बस अपने को मानूँ । पोथी ही सर्वस्व नहीं है रत्नों की खान और कहीं है ।
( इक़बाल )
मानवता का चरम प्रकर्ष देवत्व लाभ करना है बस । फिर उससे भी आगे बढ़कर भूमा स्वरूप की प्राप्ति सुखद । पूर्ण उदधि से शिक्षा लेकर
उस अनन्त की ओर उबा हूँ ||४|| मैं समुद्र के
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अपने को कुछ पढ़ा समझकर ज्ञानादन्वत् से दूर पड़ा हूँ ||५|| मैं समुद्र के -
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