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संख्या ४
यहाँ बार वहाँ
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करते हुए हम भारत को 'भारतमाता' कहते हैं। हमारी धूप-छाँह के रंग की साड़ी उड़ती हुई दिखाई देती है। ही भाँति अँगरेज़ लोग भी अपने देश को 'मदरलैण्ड' और तुम्हारा निष्ठुर तेज मानो जेठ की धूप से तपता हुआ (मातृभूमि) कहते हैं। परन्तु जर्मन लोग इसके विपरीत अाकाश है, जो मरुभूमि के सिंह के समान जीभ निकाले अपने देश को 'फ़ादरलैण्ड' (पितृभूमि) कहते हैं । हा हा करके हॉफ रहा है।
अपने देश की स्त्री के रूप में कल्पना करनेवालों ने उसकी प्रायः 'माता' कह कर ही वन्दना की है। बंकिम बाबू गाँवों में उपद्रव प्रारम्भ हो जाते हैं- तब विमला का पति ने 'वन्दे मातरम्' के अमर शब्दों-द्वारा जिस भावना को प्रकट निखिल उससे अपनी ज़मींदारी के बाहर चले जाने को किया है वह प्रायः सर्वव्यापी ही कही जा सकती है। परन्तु यत्र- कह देता है। तब अपनी प्रेयसी से विदा लेते समय. तत्र कवियों ने उसका प्रेयसी के रूप में भी दर्शन कराया है। सन्दीप फिर कहता है___ अंगरेज़ी में टामस मूर की 'लाला रुख' शीर्षक एक मैं तुम्हारी वन्दना करता हूँ। तुम्हारी वन्दना ही प्रसिद्ध और सुन्दर कविता है । उसके एक परिच्छेद का हृदय में लेकर यहाँ से जा रहा हूँ। जब से मैंने तुम्हें शीपक है 'अग्निपूजक' । इसमें उस समय की कथा है जब देखा, मेरा मंत्र बिलकुल बदल गया । अब वन्दे मातरम्' अरब के मुसलमानों ने ईरान पर आक्रमण करके पारसियों नहीं रहा, अब 'वन्दे प्रियाम्', 'वन्दे मोहिनीम है। माता. को तलवार के ज़ोर से मुसलमान बनाया था। पारमियों के . हमारी रक्षा करती है, प्रेयसी हमारा नाश । किन्तु वह एक वीर नवयुवक नेता का अपने विरोधी मुसलमान विनाश कितना मधुर है ! उसी मृत्यु नृत्य के घंघरुत्रों की सेनापति की सुन्दरी कन्या से गुप्त प्रेम हो जाता है। एक झनकार से तुमने मेरा हृदय भर दिया है । इस कोमला, स्थान पर प्रेमी अपनी प्रेमिका से कहता है
सुजला, सुफला, मलयजशीतला भारतभमि का रूप तुमने ईश्वर ने हम दोनों को क्यों मिलाया ? या तो उसे अपने भक्त की दृष्टि में एक दम बदल दिया । तुम दयामिलाना ही नहीं था या बीच में यह दीवार खड़ी न करनी मया से रहित हो, तुम विष-पात्र लेकर मेरे सामने आई थी। काश तुम भी ईरान की एक पुत्री होती ! तब हम हो। मैं या तो इसी विष को पीकर मरूँगा या मृत्युञ्जय दोनों का एक ही देश से प्रेम होता, एक ही धर्म में विश्वास हो जाऊँगा। माता का दिन आज नहीं है । प्रिया, प्रिया, होता । अाह ! उस दशा में हम कैसे सुखी होते ! तब मैं प्रिया ! देवता, स्वर्ग, धर्म, सत्य, तुमने सब चीज़े तुच्छ तुम्हें देखकर सोच सकता कि मेरी मातृभूमि ही प्रेमिका कर दी। पृथ्वी के समस्त सम्बन्ध अाज छाया-मात्र हो गये। के रूप में मेरे सम्मुख सजीव उपस्थित है। उसके लिए नियम संयम का समस्त बन्धन अाज छिन्न हो गया। प्रिया, मैं क्या न करने को तेयार हो जाता ?"
प्रिया, प्रिया ! जिस देश में तुम अपने दोनों पाँव जमाये ऊपर के अवतरण में स्वदेश की प्रेयसी के रूप में खड़ी हो उसे छोड़कर मैं सारी पृथ्वी में आग लगाकर उसकी कल्पना की एक झलक-मात्र दिखाई देती है। परन्तु राख के ऊपर ताण्डव नृत्य कर सकता हूँ। मैं तुम्हारी वन्दना रवीन्द्र बाबू ने अपने प्रसिद्ध उपन्यास 'घर और बाहर' में करता हूँ। तुम्हारे प्रति मेरे हृदय में जो निष्ठा है -उसी इस कल्पना की यथेष्ट विस्तार-पूर्वक व्याख्या कर दी है। ने मुझे निष्ठुर बना दिया है । तुम्हारे प्रति मुझे जो भक्ति इतना ही नहीं, स्वदेश की माता तथा प्रेयसीरूपी कल्पनाओं है उसी ने मेरे हृदय में प्रलय की आग भड़का दी है। की सुन्दर तुलना भी कर दी है।
सन्दीप की इन उत्तेजनामयी बातों में कारी कविक्रान्तिकारी देशभक्त सन्दीप अपनी प्रयसी विमला कल्पना ही है या वास्तविकता का भी कुछ अंश है. यह से कहता है - "मैंने अपने समस्त देश में तुम्हारा ही तो वही जान सकते हैं जिन्हें बंगाल के क्रान्तिकारी दल के विराट रूप देखा है । तुम्हारे गले में गंगा-ब्रह्मपुत्र का , भावुक नवयुवकों के सम्बन्ध में कुछ विशेष जानकारी हो । सतलड़ा हार दिखाई पड़ता है। तुम्हारे श्यामवर्ण नेत्रों जो हो, बंगाल ही नहीं, भारत के इस महाकवि की इन की काजल-लगी पलकें नदी के उस पार की बनरेखा में बातों को सोलह श्राना कोरी कल्पना ही मानने को जी तो दिखाई पड़ती हैं। अधपके धान के खेतों में तुम्हारी नहीं चाहता।
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