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संख्या ४]
शेर से भी नहीं डरते। गुड़ ड़, गुड़, ड़, गुड़ ड़ड़ड़ड़ । [धुवाँ छोड़ता है ।] - फ़ू !
फागुन -- यह तो सवा सोलह श्राने सच है । मगर यह लिहाफ़ ज़मीन पर कैसे कूद गया ?
खूनी लोटा
लम्बोदर - चुप रह । बहुत बातें बनायेगा तो जुबान और तनख्वाह दोनों काट ली जायँगी । [नेपथ्य में मालिनी पुकारती है – “फागुन ! ओ फागुन !" ] वह सुन । मालकिन तुझे बुला रही हैं। जा चला जा । [फागुन जाता है।] गुड़ ुड़, गुड़ ुड़, वाह वा ! विवाह के पहले की प्रीति और शौच जाने से पहले का हुक्का ये दोनों बड़े ही मधुर हैं । [ गुड़गुड़ी छोड़कर ] अब शौच का जाना चाहिए । [विस्तर त्यागकर कान में जनेऊ डालता है और रात के रक्खे हुए लोटे पर दृष्टि डाकर चौंकता है ।] हैं ! टोपी कहाँ चली गई ? कल रात सोते वक्त उससे लोटा ढँका था, मुझे खूब अच्छी तरह याद है । फिर कहाँ गई ? क्या उसने पर जमा लिये १ [बिस्तर, सिरहाने और कमरे में इधर-उधर खोजता है, नहीं मिलती है ।] क्या करूँ ? नहीं मिलती ! लेकिन खाते वक्त सिर नङ्गा और जंगल जाते समय सिर ढँका होना चाहिए ऐसा वेद में लिखा है । इस पर सदा बाप-दादों ने श्रमल किया है । लभ्बादर भी इसकी पूँछ यों हीं न छोड़ देगा । [चार - पाई के नीचे छोड़कर और चारों कोनों में टोपी की तलाश करता है ।] हे भगवान् ! शौच की भी बड़ी सख्त जरूरत मालूम देती है । [पेट दबाता है । कुछ सोचकर चारपाई के नीचे खोजता है ।] मिली ! मिली ! मगर इसे यहाँ कौन घसीट ले गया ? [हाथ पर
ड़कर टोपी पहनता है। लोटा उठा, हुक्के में से एक दम और खींच, पैर में स्लीपर डालकर चला जाता है ।]
[फागुन का आना ।] फागुन हुन के को नली तक चूस गये होंगे। [चिलम उठाकर दम खींचता है, धुवाँ छोड़कर ] है, है, अभी बहुत कुछ है । [ फिर दम खींचना चाहता है ।]
[मालिनी का आना ।] मालिनी [फागुन के सिर पर धप जमाती है, जिससे उसकी
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टोपी भूमि पर गिर पड़ती है ।] - मुँहझसे ! जब देखो तभी धुत्र उगलता रहता है। मैंने तुझसे चाय के लिए दूध लाने को कहा था । फागुन [टोपी उठाकर पहनते हुए रोने के स्वर में ] - तो मैंने कब जाने से इनकार किया। सेठ जी की धोती और अँगोछा लेने आया था। तुम जानती ही हो, वह बिना नहाये चाय नहीं पीते । इधर इस भरी चिलम को देखकर अमल जाग उठा । अमल में कई हज़ार घोड़ों की ताकत है, ऐसा अखवारवालों ने छापा है । मालिनी - आग लगे तेरे श्रमल के सिर में ।
फागुन — यह भी क्या झूठ है, बिना आग के धुवाँ कहाँ ? एक दम और खींच लेने दो सरकार ! कुछ कसर रह गई है।
मालिनी - मैं हर्गिज़ तुझे अब न पीने दूँगी । [ फागुन के
हाथ से चिलम छीन हुक्के पर रख देती है ।] देख, तूने कितनी मर्तबा तम्बाकू न पीने की कसमें खाई हैं ।
फागुन — अजी सरकार ! यह कभी का छूट गया होता अगर एक पेंच न होता 1 मालिनी - वह कौन - सा ?
फागुन — यही कि अगर सेठ जी के लिए दिन में दस दफ़ न भरना पड़ता तो । मेरी चिलम के गुरुघण्टाल वही हैं । वे अगर कल को इसे छोड़ दें तो सेवक इसी घड़ी से इसकी परछाई भी न लांघेगा ।
मालिनी - यह तम्बाकू का रोग ठीक नहीं जान पड़ता ।
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मकान का हर कोना इसके कोयले कूड़े से ग्राबाद है । पारसाल मेरा लिहाफ़ और इस साल मेरी नई साड़ी इसी की बदौलत जले । वे इसी को मुँह लगाये रहने से वक्त पर भोजन नहीं करते । तू इसी की टोह में काम छोड़-छोड़कर चल देता है । मैं अपने घर से इसकी जड़ खोदकर रहूँगी । फागुन- बस खोद चुकीं ! लम्बोदर जी के हाथ और पैर की नसों तक यह धुवाँ पहुँच गया है। अब कुछ नहीं हो सकता देवी जी ! इसलिए यह सेवक भी आपके चरणों में विनती करता है कि इसे एक ही दम और खींच लेने दीजिए ।
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