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मतभेद
संख्या ३ ]
जो कुछ करता है तोलकर करता है ! वाह री उसकी है तो वह शौक़ से रूठे । श्राज-कल बात बात पर उन बुद्धिमानी ! दोनों के बीच मतभेद क्यों उठ खड़े होते हैं ? किसी विषय में वे सहमत क्यों नहीं हो पाते ? अब भी वह उससे उसी तरह प्रेम करता है जैसे पहले करता था । उसने उसे पूरी स्वतंत्रता दे रक्खी है। उसकी किसी बात में वह दख़ल नहीं देता । वह छोटी छोटी सेवायें भी तो उससे नहीं लेता, जो अन्य पति अपनी पत्नियों से लेते हैं। अपनी देख-रेख स्वयं कर लेने की आदत उसने बाल्यकाल में ही डाल ली थी, और उसकी वह आदत अभी तक जैसी की तैसी बनी हुई है । वह सदैव प्रसन्न रहने की चेष्टा करता है । रुष्ट होने का कारण मिलने पर भी वह रुष्ट न होने का प्रयत्न करता है । फिर भी श्राशा उससे खुश नहीं रहती । 1 क्या वह चाहती है कि वह उसके सेवक की भाँति व्यवहार करे ? एक स्वतंत्र प्रकृति का व्यक्ति ऐसा व्यवहार कदापि नहीं कर सकता । नहीं, ऐसा कभी नहीं हो सकता । उसका ख़याल है कि परिस्थिति के अनुकूल अपने को बना लेने की उसमें क्षमता है । किन्तु यह उसका भ्रम मात्र है । वह सुशिक्षिता है, किन्तु उसे कभी समझ नहीं सकी, उसके अनुरूप अपने को बना नहीं सकी । स्त्री अपने पति से बहुत अधिक माँगती है—उतना माँगती है जितना वह दे नहीं सकता । अपनी इस अनुचित मांग की पूर्ति के निमित्त, स्वेच्छाचारिता तथा ज़िद के अस्त्र लेकर, वह भयंकर युद्ध करती है, और उसका पति जब अपने पुरुषत्व की सहायता लेकर अपने अधिकारों की सार्थकता सिद्ध कर देता है, तभी वह अनिवार्य के सम्मुख नतमस्तक होने के औचित्य को स्वीकार करती है ! यह बात कितनी खेदजनक है, किन्तु कितनी सत्य है ! आशा इस नियम का अपवाद नहीं है । क्या उसे भी उसके विरुद्ध वही कार्रवाई करनी पड़ेगी जो अन्य पतियों ने अपनी स्त्रियों के विरुद्ध की है ? ज़रूर करनी पड़ेगी। पर वह पशु-बल से काम न लेगा । उसका सा सभ्य व्यक्ति पशु-बल से काम लेना पसन्द नहीं कर सकता । वह कार्रवाई तो शायद उसने शुरू भी कर दी है। हाँ, शायद कर दी है।
उठकर वह कमरे से बाहर निकला। थोड़ी देर के बाद वह घूमने चला गया । साढ़े दस बजे वह वापस आया । एक सेवक से पूछने पर उसे ज्ञात हुआ कि आशा थियेटर से लौट आई है, उसने खाना नहीं खाया है।
बेनी वापस आया, और टिकट और बाक़ी रुपये स्वामिनी को दे दिये । पहली घंटी बजी । जाकर अपनी सीट पर बैठ जाना चाहिए ? लेकिन भीड़ तो ज़्यादा नहीं दिखाई देती। नहीं, कोई जल्दी नहीं है । अभी से जाकर बैठना लोगों को फिर घूरने का मौका देना होगा । काफ़ी घूर-घार हो चुकी, कम से कम आज के लिए ! आख़िरी घंटी बजने का इन्तज़ार करना ही मुनासिब है ।
अन्त में जब आख़िरी घंटी बजी तब वह मोटर से उतरी और अव्वल दर्जे की ओर बढ़ी। भीड़ ज्यादा नहीं थी । गेट-कीपर को टिकट देकर वह अन्दर घुसी । एक को छोड़कर सब बत्तियाँ बुझ चुकी थीं। अच्छा ! अब भी खेल शुरू नहीं हुत्रा ! जब लीचड़ हैं ये लोग !
सात बजकर ३७ मिनट हो चुके थे जब रमेश ने अपने लेख का अन्तिम शब्द लिखा । लेख दोहराकर हस्ताक्षर कर, अच्छा-सा शीर्षक लगाकर, सन्तोष की साँस लेकर, मुस्कराकर, उसने सिगरेट जलाई । उसे ऐसा जान पड़ता था, मानो उसने गहरा पड़ाव मारा हो । कांग्रेसवादियों के कौंसिल प्रवेश के औचित्य के सम्बन्ध में उसने अनोखी बातें अनोखे ढंग से कही थीं । अपरिवर्तनवादी कांग्रेसी यह लेख पढ़कर जल उठेंगे। कैसा मज़ा रहेगा ! सहसा, श्राशा की छाया - मूर्ति उसकी आँखों के सामने श्रा उपस्थित हुई । "अच्छी बात है, न चलो !” उसके ये शब्द उसके कानों में गूँज उठे। उसके स्वर में भयंकर नाराज़गी थी, प्रतिकार की विकट इच्छा थी । किन्तु क्या उसका इतना रूठ जाना उचित था ? क्या यह प्रत्येक पति का अनिवार्य कर्तव्य है कि उसकी पत्नी जब कभी और जहाँ कहीं जाय वह उसके साथ जाय ? यह कैसी अनुचित माँग है ! अगर वह उसे पहले ही से बता देती तो शायद वह उसके साथ जा सकता । किन्तु केवल उसे खुश करने के लिए उस समय लिखना बन्द कर देना उसके लिए असम्भव था। यह बात न थी कि उसे मनोरंजन की आवश्यकता नथी । थी, बहुत थी। किन्तु केवल मनोरंजन के लिए किसी आवश्यक कार्य को स्थगित कर देना उसके स्वभाव के विरुद्ध है । ऐसी परिस्थिति में वह दोषी कैसे ठहराया जा सकता है ? अगर बेमतलब रूठने में उसे मज़ा श्राता
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