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आत्म-चरित
कँवर साहब की जो साहित्यिक लेख-माला 'सरस्वती' में छपती आई है उसका यह 'आत्म-चरित'-शीर्षक लेख अन्तिम लेख है। आशा है, आपका यह लेख
भी पाठकों को रुचिकर प्रतीत होगा। इसमें आपने लेखक, श्रीयुत कुँवर राजेन्द्रसिंह यह बताया है कि आत्म-चरित कैसे लिखना चाहिए
तथा वह कितने महत्त्व की वस्तु है। कसा वन-चरित लिखना कोई मामूली हो या किसी दूसरे के द्वारा लिखा गया हो, मुख्य उद्देश या कला नहीं है, और आत्म-चरित यह है कि चरित-नायक अपने स्वाभाविक स्वरूप में पढ़ने
लिखना तो लोहे के चने चबाना वालों के सामने अा जाय। यदि जीवन-चरित में केवल 4 है। आत्म-चरित के लिखने की उसके गुणों का ही उल्लेख किया जायगा तो शायद ईश्वर LS
प्रथा इंग्लैंड में १८ वीं शताब्दी के को लोग भूल जायेंगे और यदि उसी तरह गुणों को छिपाअन्त के कुछ पहले प्रारम्भ हुई थी। पहले दफ़ 'बाटो- कर केवल अवगुणों की ही सूची दे दी जायगी तो उसमें बायग्राफ़ी' (स्वलिखित जीवन-चरित) शब्द का प्रयोग और शैतान में क्या फ़र्क रह जायगा। अँगरेज़ी-भाषा में सन् १८०९ में हुआ था। इसके पहले दूसरी कठिनाई यह होती है कि प्रात्म-चरित में छोटी ऐसे लेखों को 'जीवन-वृत्तान्त स्वयं लेखक-द्वारा लिखित', छोटी घटनाओं का उल्लेख छुट जाता है। यह नहीं है 'स्मरण-लेख', 'जीवन-चरित जिसे स्वयं चरित-नायक ने कि लेखक उन्हें नहीं लिखना चाहता है, किन्तु कारण लिखा हो', 'स्वयं लिखित इतिहास' इत्यादि कहते थे। यह होता है कि उसकी दृष्टि में उन घटनाओं का कोई केवल १९वीं शताब्दी से यह माना गया कि इतिहास से महत्त्व नहीं होता। वास्तव में छोटी ही घटनाओं से चरितइसका कोई सम्बन्ध नहीं है। अात्म-चरित के ढंग पर नायक के असली स्वरूप के पहचानने में सहायता मिलती
वहाँ सन् ७३१ में कुछ लिखा गया था, और फिर सन् है, जैसे तिनका हवा के रुख़ को बतला देता है। किसी के . १५७३ तक इस ओर कोई उद्योग नहीं हुआ।
भी जीवन में सब बड़ी ही घटनायें नहीं घटित होती हैंआत्म-चरित के लिखने में हर कदम पर कठिनाइयों छोटी और बड़ी घटनाओं के सम्मिलित समूह का ही नाम का सामना करना पड़ता है और वे ऐसी कठिनाइयाँ नहीं जीवन है। हाँ, इस पर अवश्य ध्यान रखना पड़ता है कि हैं जिन पर आसानी से विजय प्राप्त हो सके। पहला प्रश्न ऐसी बातें न लिखी जाय जो मामूली से भी मामूली हों। वे तो लिखनेवाले के सामने यह होता है कि अपने विषय में बाते श्रात्म-चरित में स्थान पाने के योग्य नहीं हैं जिनमें क्या लिखे और क्या छोड़ दे । मनुष्य गुणों और अवगुणों स्वाभाविकता न हो। चरित-नायक की वैसी तसवीर होनी का सम्मिश्रण है । यह असम्भव है कि किसी में कोई गुण चाहिए जैसा वह है न कि जैसा आज-कल का फोटो होता न हो या किसी में कोई अवगुण न हो। यह बर्क का कथन है कि सिर को तोड़-मरोड़ कर, ठुड्ढी को आगे या पीछे है कि 'किसी की त्रुटियों के कारण उससे झगड़ा करना दबाकर, एक अस्वाभाविक ढंग कर दिया जाता है। ईश्वर की शिल्पकला पर आक्षेप करना है ।' स्टीवेंसन की वह फोटो किसी का असली फोटो नहीं कहला सकता है । भी एक कविता का ऐसा ही अाशय है। उसने कहा है धोबिन दूती एक नायिका से कह रही है-"श्रौचक ही कि 'हम लोगों में जो बुरे से बुरे हैं उनमें भी इतनी हँसि अानन फेरि बड़े बड़े नयनन तानि निहारयो।" इसे अच्छाइयाँ हैं और जो हममें अच्छे से अच्छे हैं उनमें स्वाभाविकता कहते हैं | तभी तो निशाना पूरा बैठा । यदि भी इतनी बुराइयाँ हैं कि हममें से किसी के लिए यह जीवन-चरित लिखनेवाला स्वयं चरित-नायक है तो उसके उचित नहीं है कि अन्य सभों के खिलाफ़ कहें ।' यदि कामों की स्वाभाविकता उसे नहीं प्रतीत होती है और यदि लिखनेवाला अपने गुणों का उल्लेख करे तो यह कहा प्रतीत हुई तो स्वाभाविकता नहीं रह जाती। उपर्युक्त जायगा कि आत्मप्रशंसा का गीत अलाप रहा है और यदि पद पर ध्यान देने से मालूम होता है कि औचक सिर चुप हो जाय तो तुला एकांगी रहेगी और लेखन-कला घुमाकर देखने की स्वाभाविकता दती को प्रतीत हुई और दोष-युक्त होगी। जीवन-चरित का चाहे वह स्वलिखित यदि नायिका ने यह सोचकर सिर घुमाया होता कि जो
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