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हमारी गली
रा मकान चेलो की गली में था । मेरे कमरे के दरवाज़े में दो पट थे । नीचे का हिस्सा बन्द कर देने से केवल ऊपर का हिस्सा एक खिड़की की तरह खुला रह जाता था । यह खिड़की पतली सड़क पर खुलती थी । सामने दूधवाले मिर्ज़ा की दूकान थी, और मेरे मकान के दरवाज़े के बराबर सिद्दीक़ बनिये की, और उसके पास अज़ीज़ ख़ैराती की । श्रास-पास कहारों की दूकानें, अत्तार की दूकान, पानवाले की, और दो-चार दूकानें थीं; जैसेकसाई, बिसाती और हलवाई की दूकानें ।
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इस कहानी के लेखक महोदय उर्दू के प्रसिद्ध लेखक हैं और लखनऊ विश्वविद्यालय अँगरेजी के अध्यापक हैं। इनकी 'अङ्गारे' और 'शोले' आदि रचनाएँ बड़ी प्रसिद्धि पा चुकी हैं। आशा है हिन्दी में भी इनकी इस रचना का स्वागत होगा ।
हमारे मुहल्ले से होकर लोग दूसरे मुहल्लों को जा सकते थे । इसलिए सड़क बराबर चला करती और तरहतरह के लोग रास्ता बचाने के लिए मेरी खिड़की के सामने से जाते । कभी कोई सफ़ेद कपड़ा पहने गर्मी की चिलचिलाती धूप में छाता लगाये हुए चला जाता; कभी शाम को कोई विलायती मुण्डा पहने, अँगरेज़ी टोपी लगाये छिड़काव के पानी से बचता हुआ, अपने कपड़ों को छींटों से बचाता, बच्चों और लड़कों से अलग होता हुआ या उनके घूरने पर गुर्राता और आँखें निकालता हुआ नाक की सीध चला जाता। कभी-कभी रास्ता चलनेवाला त कर लड़कों को मारने के लिए लकड़ी या छाता उठाता | दूर भाग कर लड़के चिल्लाते - " लूलू है बे;
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लेखक,
प्रोफ़ेसर अहमदली
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लूलू है ।" दूधवाले मिर्ज़ा की भराई हुई बोली सुनाई देती - "वे लम्डो, क्या करते हो ? तुमको घरों में कुछ काम नहीं ।" और अगर कोई पास बैठा होता तो मिर्ज़ा उससे कहने लगता - "इनकी मात्र को तो देखो, star छोड़ रखा है कि साँड बैलों की तरह गलियों में रौला मचाया करें। हरामज़ादों को गाली-गलौज और धींगा मुश्ती के अलावा कुछ और काम ही नहीं । ”
मिर्ज़ा की छोटी-छोटी आँखें चमकने लगतीं, वह अपनी सफ़ेद तिकोनी दाढ़ी पर एक हाथ फेरता और किसी ख़रीदने वाले की ओर देखने लग जाता । कुंडे में से दही और कढ़ाई में से दूध निकालकर मलाई का टुकड़ा डालता और लेनेवाले की ओर बढ़ा देता ।
लोग कहते थे कि मिर्ज़ा की साहत का खून दौरा करता है।
धमनियों में भलमन लड़कपन में सब याद
न करने पर उसके बाप ने उसको घर से निकाल दिया और कुछ दिन मारे-मारे फिरने के बाद उसने दूकान कर ली। उसके पीछे अक्सर उसके बाप ने क्षमा माँगी और खुशामद भी की, लेकिन मिर्ज़ा ने घर लौट जाने से इनकार कर दिया । फिर मिर्ज़ा ने विवाह कर लिया और उसका काम चल निकला। उसकी दूकान के छोटे-छोटे मलाई के पेड़े शहर भर में प्रसिद्ध थे । और उसका दूध बड़ा सुस्वादु होता था। रात को जब कोई दूध लेने श्राता तब वह उसको सकारे और लुटिया में खूब उछालता,
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