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संख्या ३]
हिन्दू-स्त्रियों का सम्पत्त्यधिकार
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समझा जायगा और सम्पत्ति उसके पहले पुरुष अधिकारी सब प्रकार की सम्पत्ति में पाँच प्रकार की सम्पत्तियाँ मानी के उत्तराधिकारियों के पास लौट आ सकती है। उसकी गई हैं—(१) उत्तराधिकार में मिली हुई, (२) ख़रीदी मृत्यु के उपरान्त उसके अपने उत्तराधिकारी उस सम्पत्ति हुई, (३) बँटवारे में मिली हुई, (४) विपरीताधिकार से को नहीं पा सकते। अन्तिम पुरुष-अधिकारी के उत्तराधि- मिली हुई, (५) और किसी प्रकार से पाई गई। इन कारी ही उसे पा सकते हैं।
पांच तरह की सम्पत्तियों में सभी प्रकार आ गये । परिमित स्त्री-धन की यही विशेषता है कि स्त्री को यदि विज्ञानेश्वर का अर्थ मान लिया जाता तो इसका उसके उपभोग का पूरा अधिकार मिलता है, किन्तु हटाने परिणाम क्रान्तिकारी होता । स्त्रियों को अपनी सारी सम्पत्तियों -या बेचने का अधिकार नहीं मिलता।
पर पुरुषों की तरह ही अधिकार हो जाता। मनु, कात्यायन इस प्रकार स्त्री के अधिकारों पर तीन प्रकार के प्रति- इत्यादि ने केवल छः प्रकार के स्त्री-धनों का ही उल्लेख बन्ध लगे हुए हैं-(१) कुछ सम्पत्तियाँ ऐसी हैं जो उन्हें किया था। किन्तु इसे विज्ञानेश्वर ने यह कहकर टाल मिल ही नहीं सकतीं। (२) कुछ सम्पत्तियाँ ऐसी हैं जो दिया कि छः प्रकार का अर्थ यह है कि स्त्री-धन छः से उन्हें मिलती तो हैं, किन्तु उन पर पति का अधिकार हो कम नहीं हो सकता, अधिक चाहे जहाँ तक हो। उन्होंने जाता है । (३) कुछ सम्पत्तियां ऐसी हैं जो उन्हें मिलती यह भी कहा कि ऋषियों ने 'स्त्री-धन' शब्द को केवल भी हैं और जिन पर उनके उपभोग का पूरा अधिकार भी पारिभाषिक रूप में व्यवहार किया है, वैयुत्पत्तिक रूप में है, किन्तु जिन्हें वे अपने इच्छानुसार बेच या हटा नहीं नहीं । इस प्रकार उन्होंने स्त्री-धन का विस्तार अपरिमित सकतीं और जो उनकी मृत्यु के बाद उनके उत्तराधिकारियों कर दिया। को न मिलकर अन्तिम पुरुष अधिकारी के वारिसों को किन्तु यह मत सर्वमान्य नहीं हुआ। जीमूतवाहन ने मिल जाती है।
इसे अस्वीकार कर दिया। उनके अनुसार स्त्री-धन वही स्त्रियों के स्त्री-धन सम्बन्धी अधिकारों पर प्रायः अस्सी छः प्रकार का रहा। केवल उन्हीं ने नहीं, अन्य विद्वान् ऋषियों ने अपने अपने मत दिये हैं । किन्तु उनमें सर्व- भाष्यकारों ने भी विज्ञानेश्वर का खण्डन किया। 'माधवीय प्रधान हैं आपस्तंब, बौधायन, गौतम, मनु, याज्ञवल्क्य, नारद, टीका' का दक्षिण में बड़ा आदर है। उसमें भी उनका विरोध कात्यायन, देवल, हारीत और व्यास । ऐतिहासिक क्रम से किया गया। 'वीरमित्रोदय' ने मिताक्षरा का समर्थन किया, इनके मतों का निरीक्षण करने से पता चलता है कि प्रारम्भ किन्तु यह प्रकट किया कि यदि स्त्री की सभी सम्पत्ति में स्त्री-धन का अत्यन्त संकुचित और परिमित अर्थ था, 'स्त्री-धन' कह भी दी जाय तो भी इतना मानना ही पड़ेगा किन्तु आगे चलकर उसका बहुत विकास हो गया और कि सभी स्त्री-धन पर स्त्री का पूरा अधिकार नहीं है । वीरस्त्रियों के साथ उदारता से काम लिया जाने लगा। यह मित्रोदय का काशी में आदर है और काशीमत के अनुसार
औदार्य-भाव दिन पर दिन बढ़ता गया और अन्त में यहाँ विज्ञानेश्वर का सिद्धान्त मान्य नहीं हुआ। महाराष्ट्र में तक हुआ कि याज्ञवल्क्य ने लिख डाला कि-- 'व्यवहार-मयूख' प्रामाणिक माना जाता है। उसने स्त्री-धन
'पितृमातृपतिभ्रातृदत्तमध्यगन्युपागतम्। का अर्थ मिताक्षरा के अनुसार तो लगाया, किन्तु उसने
अाधिवेदनिकाद्यं च स्त्रीधनं परिकीर्तितम् ॥' उत्तराधिकार के अध्याय में स्त्री-धन और पारिभाषिक स्त्रीइसका अर्थ मिताक्षरा में विज्ञानेश्वर ने यह लिखा कि धन में विभेद कर दिया। इस प्रकार वह भी पूर्णरूप से 'स्त्री को पिता, माता, पति या भाई से जो कुछ मिलता है, सहमत नहीं हुआ। मदरास में 'पाराशरमाधव्य' और विवाहाग्नि के सम्मुख उसे जो कुछ दिया जाता है और 'स्मृतिचन्द्रिका' का विशेष स्थान है। ये दोनों मिताक्षरा के उसके पति के दूसरे विवाह के अवसर पर प्राधिवेदनिका मत का खण्डन करते हैं। इनका मत है कि स्त्री-धन का अर्थ के रूप में उसे जो मिलता है और शेष सब उसका विज्ञानेश्वर के कथित अर्थ की तरह अपरिमित नहीं होना स्त्री-धन है'। 'श्राद्य' शब्द पर बड़ा झगड़ा चला। विज्ञाने- चाहिए । मिथिला का प्रामाणिक ग्रन्थ 'विवादचिन्ताश्वर ने आद्य का अर्थ लगाया 'शेष सब प्रकार की सम्पत्ति। मणि' है। इसका भी वही मत है जो स्मृतिचन्द्रिका का
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