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सरस्वती
"इस मामले में मैं किसी को भी मध्यस्थ नहीं मानता ।"
अब चारों ओर निराशा थी । डूबते ने तिनके का सहारा लिया था । वह तिनका भी टूट गया। अब क्या करें ? इस समय अगर कोई उनका हृदय चीरकर देखता तो वहाँ उसे एक आवाज़ सुनाई देती – 'भगवान् किसी को बेटी न दे ।'
कोने कोने में फैल
ये
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दम के दम में यह ख़बर घर
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गई । ब्याह के दिन थे, दूर नज़दीक के सारे सम्बन्धी हुए थे । उनको एक शोशा मिल गया, चारों तरफ़ कानाफूसियाँ होने लगीं । धनियों के सगे-सम्बन्धी उनकी बदनामी से जितना ख़ुश होते हैं, उतना दुश्मन ख़ुश नहीं होते । किसी में मुँह से बोलने का साहस न था, मगर मन में सभी ख़ुश हो रहे थे कि चलो अच्छा हुआ । चार पैसे पाकर इसकी खों में चर्बी छा गई थी, अब होश ठिकाने आ जायेंगे । उधर उषादेवी शर्म से मरी जा रही थी, मगर कुछ कर न सकती थी । हिन्दू घरों में कॉरी कन्या के लिए ऐसे मामलों में मुँह खोलना पाप से कम नहीं। देखती थी कि मेरे कारण बाप का सिर नीचे झुका जा रहा है, पर दम न मार सकती थी। दिल ही दिल में कुढ़ती थी और चुपके चुपके रोती थी । इतने में उसकी मा जमना ने आकर भरे हुए स्वर में कहा--"तुझे तेरा बाप बुला रहा है। "
उषादेवी ने मा से कोई सवाल न किया और आँसू पोंछकर बाप के ड्राइङ्गरूम की तरफ़ चली । ड्राइङ्गरूम के दरवाज़े पर उसके पाँव ज़रा रुके । मगर दूसरे क्षण में उसने अपना मन दृढ़ कर लिया और अन्दर चली गई । वहाँ उसके बाप के अतिरिक्त एक और साहब भी बैठे थे । उषादेवी ने उसकी तरफ़ आँख उठाकर भी न देखा और बाप के पास जाकर खड़ी हो गई। सुरजनमल ने कहा - "बेटी ! बैठ जाओ। अपने ही पढ़ती रही हैं ?" श्रादमी हैं ।"
उषादेवी ने सिर न उठाया और एक कुर्सी पर बैठ गई; मगर इस हाल में कि उसे तन-बदन की सुध न थी । दीनानाथ ने देखा कि लड़की शक्ल-सूरत की बुरी नहीं है । और बुरी क्या, ख़ूबसूरत है। बल्कि खूबसूरती के बारे में उसकी जो धारणा थी, उषादेवी उससे भी बढ़-चढ़कर थी । दीनानाथ कुछ देर उसकी तरफ़ देखता रहा; ठीक
[ भाग ३८
ऐसे ही, जैसे हम किसी वस्तु को ख़रीदने से पहले देखते हैं। इसके बाद धीरे से बोला- "आपने अँगरेज़ी भी पढ़ी है क्या ?"
उपादेवी मूर्खा न थी, सुनते ही समझ गई कि यही मेरा भावी पति है । मगर वह क्या करे ? उसकी बात का क्या जवाब दे ? मुँह में जीभ थी, जीभ में बोलने की शक्ति न थी । वह जिस तरह बैठी थी, उसी तरह बैठी रही, बल्कि ज़रा और भी दबक गई।
दीनानाथ ने सुरजनमल की तरफ़ देखा । सुरजनमल बोले - "बेटी ! तुमसे पूछते हैं। जवाब दो ।"
उपादेवी ने बड़े संकोच से और सिकुड़कर जवाब दिया -- "पढ़ी है ।"
दीनानाथ ने इधर-उधर देखा और लपककर मेज़ से उस तारीख़ का अखबार उठा लिया। इसके बाद उषादेवी के पास जाकर बोला- “ज़रा पढ़ो तो” । यह कहकर उसने अख़बार उषादेवी के हाथ में दे दिया, और एक नोट की तरफ़ इशारा करके स्वयं पतलून की जेब में हाथ डालकर कुर्सी के पीछे खड़ा हो गया ।
उषादेवी ने थोड़ी देर के लिए सोचा, और इसके बाद सारा नोट पर फ़र पढ़कर सुना दिया ।
दीनानाथ की आँखें चमकने लगीं। उसकी अपनी बहन भी अँगरेजी पढ़ती थी, मगर उसमें तो यह प्रवाह न था । चार शब्द पढ़ती थी और रुकती थी, फिर ज़ोर लगाती थी और फिर रुक जाती थी, जैसे बैलगाड़ी दलदल से निकलने का यत्न कर रही हो । और फिर उसका उच्चारण कितना भद्दा था ! मगर उषा इस पानी की मछली थी। ऐसा मालूम होता था, जैसे यह उसकी मातृ-भाषा है । दीनानाथ सन्तुष्ट हो गया और सुरजनमल की तरफ़ देखकर बोला- “ इनका उच्चारण बड़ा साफ़ है ! किससे
सुरजनमल - "एक येोरपीय औरत मिल गई थी ।" दीनानाथ - "बस बस बस !! अगर किसी हिन्दुस्तानी से पढ़तीं तो यह बात कभी न पैदा होती । इनका उच्चारण बिलकुल अँगरेज़ों का सा है । इन्हें पर्दे में बिठाकर कहिए, बोले । बाहर कोई अँगरेज़ खड़ा हो । साफ़ धोखा खा जायगा । उसे ज़रा सन्देह न होगा कि कोई हिन्दुस्तानी लड़की बोल रही है।"
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