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संख्या १]
"वह मेरी मॅगेतर"
गाँव को मुड़ जाऊँ। लेकिन नहीं, मुझे तो जाना था, मेरे वह मेरी ओर देखे । उस समय मैंने देखा कि एक और दिल में तो उसे एक नज़र देखने का लोभ बना हुआ था पुरुष भी मूर्त की ओर प्रेम-भरी दृष्टि से देख रहा है और
सी तरह संवरण न कर सका। इस प्रेम में वासना की पुट अधिक है। वह था कोठी का चलता गया।
दारोगा। क्रोध और ईर्ष्या के कारण मेरी आँखें लाल हो मेले में पहुँचते पहुँचते मेरे सब सन्देह दूर हो गये। गई। परन्तु अपने आपको सँभालकर मैं वहीं खड़ा रहा । मत मुझे मेले से जरा इधर ही मिली। वे सब विश्राम उधर उस नरपिशाच की निगाह बराबर मत के सन्दर ले रही थीं। प्रकट में ऐसा ही प्रतीत होता था, परन्तु मुझे मुख पर जमी रही। ऐसा जान पड़ा, जैसे वह मेरी प्रतीक्षा कर रही थी। मुझे अन्त को मूर्त की मुझसे चार आँखें हुई । मैंने उसे देखते ही मुसकरा दी। उसकी आँखें नाच उठीं। मेरा हाथ से आने का संकेत किया । उसने इशारे से मुझे हृदय उल्लास से विभोर हो उठा। उसी समय मेरे गाँव का स्वीकृति दी । कदाचित् दारोगा ने भी हमारी इशारेबाज़ी एक साथी मेरे पास से गुज़रा । मैंने उसे आवाज़ दी। वह को देख लिया । दूसरे क्षण मैंने उसकी ओर देखा और वहीं खड़ा हो गया।
उसने मेरी ओर । उसकी आँखों में ईर्ष्या थी, कदाचित् "किधर जा रहे हो ?” मैंने पूछा ।
द्वेष भी। मैंने इसकी परवा नहीं की और एक बार फिर "मेले को।" उसने उत्तर दिया।
मूर्त की ओर देखकर उसके सामने ही वृक्षों की अोट में हो "किधर रहोगे ?"
गया। कुछ ही देर के बाद वह आ गई। चंचलता, उल्लास, "घूम-फिर कर देखेंगे।"
प्रसन्नता का जीवित चित्र ! मैंने कहा मूत , तुम तो दिखाई "हम तो भई वहीं वृक्षों के झंड के पीछे डेरा ही नहीं देतीं, ईद का चाँद हो गई।" लगायँगे । उधर पा सको तो आना।" मैंने मूर्त की ओर "और तुम्हारा कौन पता चलता है ? मैं इस झंड के देखकर कहा। बातें मैं साथी से कर रहा था, पर संकेत पीछे देखकर हार गई ।” मूत को था। साथी चला गया, वह मुसकरा दी। उस "पर मैं तो उधर था ।" समय वह चलने के लिए उठी। मैं शीघ्र शीघ्र कदम "मैं कैसे जान सकती थी ?" बढ़ाता सीपुर (सी० पी०) पहुँच गया ।।
___मैंने उसका हाथ पकड़ लिया। मैंने कहा-चलो छोड़ो वहाँ पहुँचा तो मेला खूब भर रहा था। मैं थका इस झगड़े को। इन चार घड़ियों को बहस में क्यों खोये ? हुआ था। तनिक विश्राम करने का ठिकाना देखने लगा। हम वृक्षों की श्रोट में चले गये । समीप ही मेले में आये
आकाश पर बादल छाये हुए थे और मनोमुग्धकारी ठंडी हुए व्यक्तियों का शोर कुछ स्वप्न के संगीत की भाँति हवा चल रही थी। मैं उस जगह के पीछे, जहाँ अाज चाय प्रतीत होने लगा। हम अपनी बातों में मग्न मेले और का रोमा लगा है, जाकर बैठ गया। न जाने कितनी देर उसमें होनेवाले राग-रंग को भूल गये। उन कतिपय तक वहाँ बैठा कल्पनाओं के गढ़ निर्माण करता रहा । लाट क्षणों में न जाने हमने भविष्य के कितने प्रासाद बनाये । अथवा किसी दूसरे पदाधिकारी के आने पर जब बाजों की वृक्षों की उस ठंडी छाया में, उस मदमत्त समोर में, उस ध्वनि वायुमण्डल में गूंज उठी तब मेरी विचार-धारा लालसा-उत्पादक एकान्त में मूर्त मुझे मूर्तिमान् सुन्दरता टूटी। मैं अपनी जान में मूर्त की प्रतीक्षा कर रहा था। पर दिखाई दी और मैंने एक स्वर्गीय आनन्द से विभोर होकर यह न सोचा कि जब उसे इस स्थान का पता ही नहीं तब उसे अपनी ओर खींचा। इस समय हमारे सामने किसी वह यहाँ आयेगी कैसे ? यह ध्यान आते ही उठा । इधर- की गहरी छाया पड़ी। मैंने चौंककर पीछे की ओर देखा। उधर घूमता वहाँ पहुँचा, जहाँ स्त्रियाँ बैठी हुई थीं। मूर्त वही दारोगा क्रोधभरी ईर्ष्यामयी आँखों से मुझे घूर रहा एक सिरे पर बैठी थी। मैं उसके सामने से गुज़रा, पर था। मैं तनककर उसके सामने खड़ा हो गया। मूर्त भी उसकी आँखें किसी और तरफ़ थीं। मैं एक ओर हटकर बैठी न रह सकी। खड़ा हो गया और इस बात की प्रतीक्षा करने लगा कि "इस औरत को किधर भगाने की कोशिश कर रहे
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