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साहब जी महाराज श्रौर
उनका
दयालबाग़
लेखक, श्रीयुत जानकीशरण वर्मा
यालबाग' देखने की बहुत दिनों से मेरी इच्छा थी । १९३३ की जुलाई में मैं स्काउटिंग के प्रचार के लिए वहाँ जानेवाला था, लेकिन बीमार हो गया । कुछ ही महीनों के बाद मुझे दूसरा अवसर मिला । १९३३ की चौथी दिसम्बर को जब मैं ग्रागरे के छिली ईंट मुहल्ले से मोटर में बैठकर दयालबाग के लिए रवाना हुआ तब मेरी खुशी का ठिकाना न रहा। कुछ मिनटों के बाद मैंने सड़क के किनारे एक साइनबोर्ड देखा, जिस पर अँगरेज़ी में लिखा था- 'दयालबाग को '। उससे १०६
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[ साहब जी महाराज सर श्रानन्दस्वरूप
थोड़ी दूर ग्रागे जाने पर मेरे एक साथी ने कहा कि अब दयालबाग़ पहुँच गये। मुझे आश्चर्य हुआ ।
यह दयालबाग मेरे पूर्व-कल्पित दयालबाग से बिलकुल दूसरा ही निकला । मेरा दयालबाग़ बुरा नहीं था, लेकिन वह इतना शानदार और २० वीं सदी के सामानों से सजा हुआ भी नहीं था। मैंने मोटर ड्राइवर से कहा, 'धीरे धीरे', और अपने एक मित्र से तरह तरह के सवाल करना शुरू किया। शरणाश्रम, प्रेमनगर, कार्यवीरनगर और स्वामीनगर मुहल्लों के मकानों को सरसरी तौर पर देखता हुआ मैं 'गेस्ट हाउस' के सामने श्राया। वहीं मुझे ठहरना था । मोटर से उतरने के पहले मैंने अपने मित्र से पूछा - "यहाँ और कौन कौन मुहल्ले है ?” उन्होंने कहा - " दयालबाग, श्वेतनगर इत्यादि । "
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