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सरस्वती
[भाग ३८
सफ़र करनेवाले जहाज़ में बैठे-बैठे हम इस भाव का एक . या भयानक में वह अपने को भिन्न मानती है। इन दोनों भिन्न रीति से अनुभव करते हैं।
.. मनोवृत्तियों का जिसने अनुभव किया है, ऐसे कलाकार ने ___ मनुष्य भव्य वस्तु के साथ हमेशा अपना मुकाबिला एकाएक घोषित किया है कि शिव और रुद्र एक ही हैं. करता ही रहता है। ऐसा करते-करते जब वह थक जाता शान्ता और दुर्गा एक ही हैं। जो महाकाली है वही है तब इससे रौद्र-रस प्रकट होता है। और जहाँ भव्यता महालक्ष्मी और महासरस्वती है। श्री रामचन्द्र जी का की नवीनता और उसका चमत्कार भुलाया नहीं जाता, दर्शन होते ही हनुमान् के भक्त हृदय ने स्वीकार कर वहाँ अदभुत-रस का परिचय मिलता है। ये तीनों रस लियामनुष्य की संवेदन-शक्ति के ऊपर निर्भर हैं। आकाश के
'देहबुद्धया तु दासोऽहम् अनन्त नक्षत्रों को देखकर जानवरों को कैसा लगता है. यह
जीवबुद्धथा त्वदंशकः। हम नहीं जानते । जब बच्चों को वह एक पालने के चंदोवे
श्रात्मबुद्धथा त्वमेवाऽहम् , की तरह मालूम होता है तब वही एक प्रौढ़ खगोल शास्त्री
यथेच्छसि तथा कुरु ॥' को नित्य नूतन और बढ़ते हुए अद्भुत-रस का विश्वरूप- इस अन्तिम चरण में जो संतोष और आत्मसमर्पण दर्शन जैसा लगता है। अद्भुत-रस की विशेषता यह है है वही कला के क्षेत्र में शान्त-रस है । रौद्र, भयानक कि जिस तरह मेघ का गर्जन सुनकर सिंह को गर्जन करने और अद्भुत ये तीनों रस अन्त में जब तक शान्तरस में की सूझती है, उसी तरह आर्य-हृदय को भव्यता का दर्शन न मिल जायँ, जब तक हमारा समाधान न करें, तब तक होने के साथ ही अपनी विभूति भी उतनी ही विराट भव्य काई इन्हें रस कहेगा ही नहीं।* करने की इच्छा होती है। अद्भुत-रस में मनुष्य की .......... श्रात्मा अपने का अद्भुतता से भिन्न नहीं मानती, पर एक * यह लेख हमें भारतीय साहित्य-परिषद्, वर्धा, से अमुक रीति से इसमें वह अपना ही प्रादुर्भाव देखती है, रौद्र मिला है । सम्पादक
अब भी लेखक, श्रीयुत कुँचर सेमेिश्वरसिंह, बी० ए०, एल-एल० बी० है उन स्वप्नों की छाया,
बुझ गई ज्योति जीवन की, अब भी उर में छा जाती।
है अन्धकार-सा छाया। सुधि एक कसक सी उठकर
पर कुछ प्रकाश-सा अब भी, है कभी कभी आ जाती ॥
दिखला जाती है माया ॥ है बीते विकल क्षणों की, हैं छोड़ गई मुझको सब, स्मृति जीवन विकल बनाती। वे मतवाली आशायें । है कभी कभी उर-तन्त्री, पर उकसा जाती हैं उर,
अब भी वह राग बजाती ।। अब भी मृदु अभिलाषायें । मादकता चली गई है,
जर्जर जीवन में उठता, अब भी खुमार है यानी ।
है तड़प कभी नव जीवन। नयनों के सम्मुख सहसा,
चेतना-हीन कर देता, आ जाती है वह झाँकी॥
है कभी कभी पागलपन ।।
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