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संख्या २]
होनी भी चाहिए, जिसमें वह जन साधारण की रुचि को सुधार सके और अपना प्रभाव डाल सके । यदि प्राचीन नृत्य- कला ऐसी वस्तु है जिसको एक साधारण मनुष्य जिसमें सामान्य बुद्धि और पवित्र रुचि हो, न समझ सके और न गुणों की परख ही कर सके तो शहर के बीच में टिकट लगाकर जनता के निमन्त्रित करके उसे प्रदर्शित करना
भारतीय नृत्य-कला
मूर्खता है । यह समझ की बात है और विवेकपूर्ण भी है कि नृत्य कला में विभिन्नता होनी चाहिए । नृत्य में किसी ख़ास अंग के सञ्चालन में प्रवीणता प्राप्त करके जैसे घुँघुरु की कला में - यह दावा करना कि यही प्राचीन नृत्य का व्याकरण है और यही होना चाहिए, मेरी राय में ग़लत है और साथ ही हानिकारक भी। इसी प्रकार व्याकरण के गुलाम किसी अन्य मंडली के सम्बन्ध में भी यही आक्षेप लागू होना चाहिए। यह लाजवाब घुँघुरु की कला स्वयं बुरी नहीं, किन्तु इसके सबसे अच्छे प्रद र्शन को भी हम लयपूर्ण व्यायाम ही कह सकते हैं। यह बिलकुल यान्त्रिक है, यद्यपि इससे टाँग और पैर की रंगों और पट्टों पर आश्चर्यजनक अधिकार ज्ञात होता है । किन्तु फिर भी हम इसे शुद्ध नृत्य- कला नहीं कह सकते । यह बात अवश्य है कि यह नृत्य कला की सर्वश्रेष्ठ है ।
वास्तव में नृत्य का आरम्भ वहाँ होता है, जहाँ उसके व्याकरण का अन्त है । मैं इसे स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि मैं प्राचीन हिन्दू-नृत्यकला के पुनरुज्जीवित करने के विरुद्ध नहीं हूँ और न तो मैं इस कला के सच्चे प्रदर्शकों state a faa किसी प्रकार का आक्षेप करना चाहता ॐ हूँ। मैं केवल इस बात पर जोर देना चाहता हूँ कि जब तक व्याकरण को उपयुक्त स्थान नहीं दिया जायगा और वह लक्ष्य तक पहुँचने के लिए केवल साधन मात्र नहीं माना जायगा और जब तक इस कला के शिक्षार्थी अपनी मानसिक और हार्दिक उन्नति न कर लें तब तक वे इस कला में निपुण नहीं हो सकते। यह अक्षरशः सत्य है कि मीराबाई के भजन नाचने के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि वह यदि मीराबाई की प्रात्मिक उन्नति तक न पहुँच सके तो कम-से-कम उसके तत्त्व तक तो अवश्य ही पहुँच "जाना चाहिए। मेरी राय में नृत्यकला का उसके व्याकरण
की अपेक्षा स्वाभाविकता अधिक आवश्यक है। क्योंकि
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आख़िर नृत्य का उद्देश क्या है और चाहिए ?
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क्या होना
नृत्य व्यक्ति के लय और ताल सुर-युक्त अंग-संचालनद्वारा भावों का प्राकृतिक और शक्तिशाली प्रदर्शन करना है । शारीरिक उन्नति और मनोरंजन का भी इससे अत्यन्त समीप का सम्बन्ध है । नृत्य में अनेक प्रकार के भाव उमड़ सकते हैं। इसमें मारने और जिलाने की गुप्त शक्ति भी छिपी हुई है। इसलिए यह और भी श्रावश्यक हो गया है कि हम जिन भावों का प्रदर्शन करना चाहते हैं उनका विवेक के साथ चुनाव करें। और यह बहुत ही सौभाग्य की बात है कि हमारी दृष्टि अपनी प्राचीन नृत्य - कला की ओर गई है। क्योंकि उस कला की सृष्टि ही नर्तक और दर्शक के भावों को पवित्र और उन्नत करने के लिए हुई है । मैं तो इस कला को सर्वव्यापक ! रहस्य या परमात्मा की एक प्रकार की उपासना समझता हूँ। वास्तव में इसको व्यक्तिगत भक्ति का कर्म समझना चाहिए । यदि एकान्त में आन्तरिक भाव-प्रदर्शन के लिए नृत्य किया जाय तो वह अत्यन्त आनन्ददायक और सफल होता है । मैं तो मस्तानेनाथ का मानता हूँ। धन कमाने के लिए या अपने मालिक को प्रसन्न करने के लिए या प्रशंसा प्राप्त करने के लिए जो नृत्य किये जाते हैं वे मेरी तुच्छ राय में उस प्राचीन भारतीय नृत्य कला के उत्तम आदर्श तक हमें नहीं पहुँचा सकते जो हमें अत्यन्त प्रिय मालूम होती है। भय, लालच, अहंकार, ढोंग की लजा इस उच्च कला के घातक शत्रु हैं। यद्यपि इस कला का पहला आदर्श हृदय को आकर्षित करना है, तथापि इसका
भिप्राय यह नहीं है कि हम नेत्रों और मन को सौन्दर्यप्रियता को भूल जायँ । सभी साधनों को ठीक ढंग से और अन्दाज़ से काम में लाना चाहिए, जो विषय तक ले जाने में समर्थ हों ।
हमारे पास भावों की भाषा, सुन्दर श्रासन और मुद्राओं की अद्भुत अक्षय पैत्रिक सम्पत्ति है। ये चीजें नृत्य के प्रभाव को बहुत हद तक बढ़ाने में मदद करती हैं। परन्तु यहाँ भी सच्चे कलाविद् को इस बात की पूरी स्वतन्त्रता प्राप्त होनी चाहिए कि वह जब चाहे नई मुद्राओं और नये आसनों की सृष्टि कर सके । बदन का लोच नृत्य का नेत्रों के लिए सुन्दर बना देता है, किन्तु
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