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एक हास्य रस की कहानी
अशान्ति के दूत
लेखक, श्रीयुत पृथ्वीनाथ शर्मा, बी० ए०, ( आनर्स) एल-एल० बी०
ष्टि के आरम्भ में तो शायद नहीं, पर यह निश्चित है कि जब मनुष्य ने प्रकृति की राह छोड़कर संस्कृति का पथ पकड़ा था तब से लेकर उसके जीवन में अशान्ति फैलानेवाले तत्त्वों में जूतों का बहुत बड़ा हाथ रहा है। इनकी ढिठाई की कहानियाँ ग्राज भी देश देश में प्रचलित हैं । पर एक तुच्छ चमरौधा भी किसी के जीवन को भार बना सकता है, यह शायद आपने न सुना होगा । इसी लिए यह कहानी कहने का साहस कर रहा हूँ। बात उन दिनों की है जब मेरे सम्मुख सभ्यता का भूत खड़ा करके घरवालों ने धीरे धीरे मेरे शरीर के सब अंगों को ढँक दिया था। पर जब वे मेरे पाँवों से भी छेड़छाड़ करने पर उद्यत हुए तब मैंने साफ इनकार कर दिया । आख़िर हर एक बात की हद होती । उन दो स्वच्छन्द विचरनेवाले जीवों को मैं क्यों जूतों के बन्धन में डाल देता। घरवालों ने बहुत समझाया, जूता न पहनने से होनेवाली बीमारियों के कई लोमहर्षक चित्र खींचे, देशी, विलायती, लखनवी, पेशावरी, सलीमशाही, सुनहरे, रुपहले, सब प्रकार के जूतों के विस्तारपूर्वक गुणानुवाद किये, पर टस से मस न हुआ । आखिर बकझक कर घरवाले चुप हो रहे । मैं अपनी विजय पर इतरा उठा ।
परन्तु मेरा मन्दभाग्य तो देखिए ! जो बात घरवालों के लाख यत्नों से न हो सकी वही बात एक देहाती इस सफ़ाई से कर गया कि मैं देखता ही रह गया ।
हमारे गाँव से कुछ ही मील की दूरी पर वैशाखी के दिन रामतीर्थ का मेला लगा करता है। उससे पहले यद्यपि कभी स्वप्न में भी उसे देखने का ख़याल न आया था, पर उस दिन पता नहीं क्यों अपने छोटे भाई रघु से सुनते ही मेला देखने की धुन सवार हो गई। पत्नी नहाने गई तब • उसकी पैसोंवाली संदूकची पर जा छापा मारा। साढ़े चौदह श्राने हाथ लगे । इन्हें और रघु को साथ लेकर पत्नी के लौटने से पहले ही चल दिया ।
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कोई घंटा भर के अनन्तर हम मेले में जा पहुँचे । घर से भी कुछ अधिक नहीं खाकर चले थे, इसलिए एक घंटे में ही भूख से व्याकुल हो उठे। मेले के बाहर ही एक हलवाई तेल की बड़ी बड़ी जलेबियाँ निकाल रहा था । हम वहीं बैठ गये और उन पर टूट पड़े। हम अभी बैठे ही थे कि एक देहाती हाथ में एक थैला लिये वहाँ आ निकला । वह मोटे खद्दर का लम्बा कुर्ता और घुटनों से ज़रा नीचे तक पहुँचती हुई खद्दर की धोती पहने था । सिर पर लाल पगड़ी थी, जो शायद सुबह ही उसने स्वयं रँगी थी, क्योंकि उसके हाथों से लाल रंग अभी तक छूटा न था । उसने अपनी टेढ़ी आँखों से मुझे सिर से पाँव तक देखा और आपस में उलझे हुए कालेपीले दाँत निकालता हुआ बोला - " आपका जूता क्या खो गया है ?"
"नहीं ।" मैंने बेपरवाही से जवाब दिया । "पर आपके पाँव तो नंगे हैं ।"
'तुमको इससे क्या', मैंने यह कहना चाहा, पर उसका बलिष्ठ शरीर देखकर कहने का साहस न हुआ | आगे पड़े हुए दोने से उठाकर एक जलेबी ऐसी मुद्रा धारण करते हुए मुँह में रक्खी जिससे साफ़ झलकता था कि जाओ, अपना रास्ता पकड़ो, हमें खाने दो। मुझे यह निश्चय है कि मेरा यह तीर बेकार न जाता यदि रघु ने सारा गुड़ : गोवर न कर दिया होता। पगला उसी समय बक उठा- "ये जूता नहीं पहनते । ” "क्यों ?"
"इन्हें जूतों से चिढ़ है ?"
"चिढ़ ?” उसने मुसकराते हुए कहना आरम्भ किया और मेरे पास बैठ गया । " है भी तो ठीक। आज कल के जूतों से किसे चिढ़ न होगी ? बाहर से तो बेसवा की तरह चमक-दमक, पर अन्दर काग़ज़ और भूसा भरा रहता है । आज पहना तो कल दाँत निकाल देते हैं। मालूम होता है, आपकी नज़रों से असली जूता कभी गुज़रा ही नहीं ।"
यह कहते कहते उसने अपने थैले से कोई इंच भर
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