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सरस्वती
[भाग ३८
थे, जहाँ इन्हें फेंक दूं तो प्रलय तक पड़े सड़ते रहें। लगा "अाज ? इतनी जल्दी क्या पड़ी है ?" अपने मस्तिष्क में ऐसे स्थानों की सूची बनाने और उनमें "मुझे एक बहुत ज़रूरी काम है।" से जूता छिपाने के लिए सबसे उपयुक्त स्थान छाँटने। कभी "काम ?” मेरी सास ने मुस्करा कर मेरी ओर इस स्थान की ओर झुकता था, कभी उसकी ओर, पर देखा-"तुम कब से काम करने लगे हो ? खैर, पर मैं निश्चय कुछ नहीं कर पाता था। सबमें कोई न कोई दोष शामो को अभी नहीं जाने दूंगी।" शामो मेरी पत्नी का दीख जाता था। यहाँ तक कि इसी उधेड़-बुन में स्टेशन नाम था। . आ गया। हम उतर कर गाँव को चल दिये।
मेरा हृदय प्रसन्नता से उछल पड़ा। यही तो मैं
चाहता था। न वह साथ में रहेगी. न नंगे पाँवों की चर्चा जूते को छिपाने के अवसर तो मुझे बहुत मिले, होगी। परं उसकी माता के सामने प्रसन्नता प्रदर्शित करना पर उस भीड़-भड़ाके में मैंने कुछ भी करना उचित न एक बला मोल लेना था। इसलिए अपने स्वर में खेद समझा। मैं जानता था, मेरे नंगे पाँव देखकर कइयों के भरकर मैंने अपनी अनुमति दे दी--"अच्छा ऐसे ही हृदय में गुदगुदी होगी और वे इस विषय में अनधिकार सही, पर एक सप्ताह तक उसे भेज अवश्य देना।" चेष्टा किये बिना न रह सकेंगे। मेरे लाख बहाने गढने "अच्छा। तुम शाम की गाड़ी से ही जानोगे न ?” . पर भी जूते की तलाश श्रारम्भ हो जायगी। इसलिए "नहीं। अभी दस बजे की गाड़ी से।" अब भी ' दो-चार दिन तक और उन दुष्टों के अप्रिय श्राघातों के अधिक देर नंगे पाँव वहाँ रहना ख़तरनाक था। सहने का निश्चय कर लिया।
"परन्तु वह गाड़ी तो तुम्हारे गाँव के निकट ठहरती श्रारिखर मुंडन संस्कार ज्यों-त्यों समाप्त हो गया। ही नहीं।" अतिथि घरों को लौटने लगे। यहाँ तक कि पाँचवें दिन मैं इस बात को भ गया था। अब? मैं सोचने घर लगभग खाली हो गया। मैंने भी अब जाने की ठानी लगा और मस्तिष्क ने शीघ्र ही राह भी सुझा दी- "मुझे और जूते को छिपाने की भी। इससे अगले दिन अभी रास्ते में अमृतसर में उतरना है।" पौ फटने में कई घड़ियों की देर थी। घरवाले गहरी नींद "क्या दरबार साहब देखना चाहते हो ?” मेरी सास सो रहे थे। मैं चुपके से उठा और जूते को लेकर घर की ने व्यंग्य से कहा। उस कोठरी में पहुँचा जिसमें सदा कूड़ा-करकट भरा रहता "हाँ" मैंने गम्भीर मुद्रा धारण किये जवाब दिया। था, जिसमें किसी का जाना शायद वर्ष में एक-दो बार से और कर ही क्या सकता था? अधिक नहीं होता था। उसी के एक कोने में ज़ंग से भरे उसने अधिक विवाद व्यर्थ समझकर मुझे आज्ञा लोहे के बीस किस्म के टुकड़ों का एक बड़ा-सा ढेर पड़ा दे दी। इससे थोड़ी ही देर के बाद में अपनी पाटली था। उसी के नीचे जूतों को. दबाकर मैं धड़कता हुआ उठाकर स्टेशन का चल दिया । यद्यपि स्टेशन बहुत दूर उलटे पाँव लौटकर अपनी चारपाई पर पा लेटा और था, पर कई दिनों के बन्धन के अनन्तर नई पाई हुई सूर्योदय की प्रतीक्षा करने लगा। मन्द मन्द सुखद समीर स्वच्छन्दता के मद में मेरे पाँव मानो पवन पर तैरते हुए बह रही थी, इसलिए मुझे एक हलकी-सी झपकी आ मुझे लिये उड़े जा रहे थे। अभी जब मैं स्टेशन पर पहुँचा गई, जिसने बची-खुची रात्रि को समेट लिया, क्योंकि जब गाड़ी थाने में पूरे पन्द्रह मिनिट थे। फिर मेरी आँख खुली तब सूर्य की पहली किरणें मेरे चेहरे मैं टिकट खरीदकर स्टेशन के मध्य में एक वृक्ष की पर खेल रही थीं। मैं हड़बड़ाकर उठा और नहाने-धोने छाया में बैठ गया और अपने पाँवों पर हाथ फेरने लगा। की तैयारी में लग गया।
कितने प्यारे मालूम देते थे वे जूतों के बिना । मेरे हृदय . जब मैं वापसी यात्रा के लिए सजधज कर अपनी में आनन्द की एक बिजली दौड़ गई। अब देखूगा, घरसास के पास पहुंचा तब उसने पूछा-"क्या बात है ?" वाले क्या कहते हैं। एक एक को न चिढ़ाया तब बात
"अाज जाना चाहता हूँ। आशा के लिए आया हूँ।” है। मेरी कल्पना ने तेज़ी से चित्र खींचने प्रारम्भ कर
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