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संख्या १]
"वह मेरी मॅगेतर"
था। यह जानकर कि उसे मेरी पत्नी बनना है, मूर्त ने गये। मैंने इनसे एक ख़ाकी कोट और बिरजस बनवाई, मुझसे मिलना छोड़ दिया था। मैं व्यर्थ ही अब अपने अच्छे से बूट खरीदे, अच्छी-सी धारीदार गबरून की दो दोर लेकर उस घाटी में जाता, जहाँ वह अपनी गायें कमीज़े सिलवाई, दो रुमाल लिये, बारीक मलमल का चराया करती थी। व्यर्थ ही उस चट्टान पर घंटों बैठा बिजली रंग का साफा रंगवाया। और जब मेले के दिन रहता, जहाँ हम दोनों बैठे गीत गाया करते थे, व्यर्थ ही इन सब कपड़ों से सजकर मैंने कुल्ले पर नोकदार साफ़ा रात को बाँसुरी बजाया करता। उसकी सूरत बिलकुल न बाँधा और उसके तुरे का फूल-सा बनाकर शीशे में दिखाई देती । दूध देने भी अब उसका छोटा भाई जाता। देखा तब गर्व से मेरा सिर तन गया और चेहरा लाल मैं उससे मूर्त की बातें पूछा करता। कभी वह सरल अबोध हो गया । बालक मुझे उत्तर दे देता और कभी मेरी बातें उसकी रेशमी रुमाल का कोट की ऊपर की जेब में रखकर, समझ में न आतीं।
कमीज़ के कालरों के कोट पर चढ़ाकर, हाथ में छोटी-सी
छड़ी लेकर जब मैं मेले को रवाना हुआ तब गाँव के सब इसी प्रतीक्षा में शीत बीत गया। दिन खिल उठे। स्त्री-पुरुष मुझे निनिमेष निगाहों से ताककर रह गये । हमारे विवाह की तिथि भी नियत हो गई। परन्तु मेरे मुझे देखकर कौन कह सकता था कि यह रोज़ सुबह-शाम हृदय की बेचैनी नहीं घटी । मैं मूर्त की सूरत तक को तरस दूध लेकर सँजौली जानेवाला ग्वाला है और इसका काम गया । उसे देखने के लिए मेरे सब प्रयास असफल हुए। गायें चराना और उनकी सेवा करना है।
चौकीदार ने एक लम्बी साँस लेकर कहा-तुम मार्ग में एक पानी की सबील थी । यों ही कच्ची मिट्टी पूछोगे, गोविन्द, जब उसे मेरे घर अाना ही था तब फिर और पत्थरों से तीन दीवारें खड़ी करके उन पर टीन का उसे देखने की बेचैनी क्यों ? मैं स्वयं ठीक तौर पर इस छप्पर डाल दिया गया था। छप्पर पर बड़े बड़े पत्थर प्रश्न का उत्तर नहीं दे सकता । वास्तव में जिस दिन हमारी रक्खे थे, ताकि तीक्ष्ण वायु से वह कहीं उड़ न जाय। मँगनी हो उस रोज़ से उसने अपनी सूरत भी नहीं इस प्रकार बनी हुई वह कोठरी एक तरफ़ सर्वथा खुली दिखाई थी। और मैं इस ज्ञान के पश्चात् उससे कई तरह हुई थी। कोई किवाड़ इत्यादि भी नहीं थे। इसी में एक की बातें करना चाहता था। यह बात जानने के बाद वह बड़ा-सा पत्थर रक्खा था, जहाँ एक अधेड़ आयु की किस तरह की बातें करती है, किस प्रकार उसका मुख स्त्री पानी पिला रही थी। यह मूर्त के गाँव की बुढ़िया लज्जा से सर्ख हो जाता है. इन सब बातों का अानन्द तुलसी थी। मैं इस सबील पर आकर रुका, प्रकट में कछ मैं लेना चाहता था और भावी जीवन के सम्बन्ध में पहले सुसताने के लिए, परन्तु मेरी हार्दिक इच्छा यहाँ रहकर से ही कुछ बातचीत कर रखना चाहता था। पर उसने मूर्त की बाट जोहनी थी। जैसे अपने घर से बाहर निकलने की सौगन्ध खा ली थी। यह सबील सड़क के दाई ओर केलू के वृक्षों के झुंड मैं लाख इधर-उधर चक्कर लगाता, लाख बाँसुरी में आने में बनी हुई थी। मार्ग के इस ओर कुछ निचाई थी। का चिरपरिचित संदेश देता, पर वह नहीं पाती। पहाड़ पर नीचे को सीढियाँ-सी बनी हुई थीं और गायों के
इन्हीं दिनों में सी० पी० का मेला आ गया । मेरी इधर-उधर चलने से छोटी छोटी-सी पगडंडियाँ प्रतीत प्रसन्नता की सीमा न रही। मेले में वह अवश्य जायगी, होती थीं। मैं सबील के एक अोर मार्ग की तरफ पीठ इस बात का मुझे पूरा निश्चय था और फिर कहीं रास्ते में करके, नीचे को टाँगें लटकाकर बैठ गया। साफ़ा उतारउसे देख पाना और अवसर पाकर उससे दो बातें कर कर मैंने पास ही पड़े हुए पत्थरों पर रख दिया। परन्तु लेना असम्भव नहीं था। मैं कई दिन पहले से ही मेले मुझसे बहुत देर तक इस प्रकार बैठा नहीं गया । मैं तुलसी की तैयारियों में निमग्न हो गया। दूध बेचने पर जो कुछ से कुछ बातें करना चाहता था । पानी पीने के बहाने उठा बचता उसमें से भैया कुछ मुझे भी दे देते थे। शनैः शनैः और वहाँ पहुँचा । पानी पीने ही लगा था कि उसने व्यङ्गय यह रकम जमा होती गई, और मेरे पास पचास रुपये हो का तीर छोड़ा।
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