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सरस्वती
[भाग ३८
की कमीज़, उस पर जाकेट, कमर में काली सुथनी, पाँव. गोविन्द, उस रात मुझे नींद नहीं पाई। सारी रात में ख़ाकी रंग का फलीट । उसकी नाक में छोटी-सी लौंग उसकी आँखें, उसकी सुन्दर सलोनी सूरत, उसका मधुर थी। उस शाम के धुंधलके में मुझे उसकी सूरत बहुत वार्तालाप, उसका यह पूछना, "तुम रोज़ उधर जाते हो भली लगी। जब तक वह मेरे बराबर न आ गई, मैं उसे क्या", उसकी हर अदा मेरी आँखों में नाचती रही, देखता ही रहा।
उसकी हर बात मेरे कानों में गूंजती रही। एक-दो बार ___ समीप आने पर ज्ञात हुआ, उसे भी दूध देने सँजौली मैंने अपनी परिचित बालाओं से उसकी तुलना की। कोई जाना है और अँधेरा हो जाने से वह तनिक डर-सी रही । असाधारण बात न थी। कदाचित् उससे भी अधिक सुन्दर है । मैंने उसे आश्वासन दिया और हम दोनों सँजौली रमणियाँ हमारे गाँव में थीं। पर न जाने, उसमें क्या था, की ओर चल पड़े। कुछ देर चुप चलते रहे। परन्तु सन्ध्या उसकी आँखों में क्या था, उसकी चाल में क्या था, का सुहावना समय, ठंडी ठंडी वायु, सुन्दर पहाड़ी दृश्य, उसकी बातों में क्या था। में दीवाना-सा हो गया। वह मार्ग की तनहाई, कोई अकेला हो तो चुपचाप लम्बे लम्बे दिन मेरे समस्त जीवन की निधि है, जिसकी स्मृति अाज डग भरता चला जाय । हम दोनों में भी धीरे धीरे बातें भी मूक और नीरव एकान्त में मेरी संगिनी होती है। चल पड़ी। प्रारम्भ किसने किया, स्मरण नहीं, परन्तु दूसरे दिन हम फिर उसी जगह मिले। मैंने उससे सँजौली पहुँचते पहुँचते हम घुल-मिल गये । आते समय मिलने के लिए कोई विशेष प्रयत्न नहीं किया। अपने भी हम इकट्ठे ही आये। उसने कहा था, मैं दूध देकर नल निश्चित समय पर चल पड़ा, तो भी हम उसी स्थान के पास तुम्हारे आने की प्रतीक्षा करूँगी। और जब मैं पर मिल गये। कदाचित् वह भी कुछ देर पहले चल वापस फिरा तब वह मेरा इन्तज़ार कर रही थी। अँधेरा पड़ी थी। पहले दिन की भाँति फिर हम इकट्ठे सँजौली बढ़ चला था, हम निधड़क चलते गये। बातों में मार्ग की गये, फिर मैं उसे घर तक छोड़ने गया, फिर उसी प्रकार दूरी कुछ भी नहीं जान पड़ी, और जब हम वहाँ पहुँच उल्लास से वापस आया। हाँ, आज एक और बात का गये, जहाँ से हमें जुदा होना था तब मेरा हृदय सहसा पता ले आया। वह भी दिन को अपनी गायें चराया धड़क उठा। मैंने कहा-"अँधेरा अधिक हो गया करती थी, पर दूसरी घाटी में। दूसरे दिन मेरी गायें भी है । मैं तुम्हें तुम्हारे घर तक छोड़ आता हूँ। फिर अपने उसी घाटी की ओर जा निकलीं, जैसे अचानक । पहले वह गाँव को चला पाऊँगा।" वह मान गई। मैं उसे तनिक झिझकी, परन्तु जब मैंने अपनी गायों को वापस उसके घर तक छोड़ने गया। उसके घर के समीप हम मोड़ना चाहा तब उसने कहा- "इस घाटी में घास अधिक जुदा हुए । उसकी आँखों में कृतज्ञता थी। जुदा होते समय अच्छी है ।" मैं न जा सका। इसके बाद हम प्रायः रोज़ उसने धीरे से पूछा- "तुम रोज़ उधर जाते हो क्या ?” साथ ही गायें चराते, साथ ही दूध लेकर सँजौली जाते
और साथ ही वापस पाते। मेरी बाँसुरी का शौक भी इन "और तुम ?"
दिनों कुछ बढ़ गया। रात को प्रायः मैं अपने इधर की "मैं भी।"
पहाड़ी पर अपने घर के बाहर ऊँची-सी जगह बैठकर बस इसके बाद हम जुदा हो गये। मैं ज़रा तेज़ी से बाँसुरी बजाया करता। एक शब्द में कह दूँ, गोविन्द, वापस फिरा, पर शीघ्र ही मेरी चाल धीमी हो गई और मुझे उससे प्रेम हो गया था। जिस दिन मैं गायें लेकर मैं अपने ध्यान में मग्न चलने लगा। जब चौंका तब पहले पहुँच जाता और वह देर से आती, उस दिन मेरे देखा, सँजौली के समीप पहुँच गया हूँ। फिर वापस मुड़ा। हृदय में सहस्रों आशंकायें उठने लगतीं। यही हाल घर पहुँचा तो देर हो गई थी। भाई को चिन्ता हो रही उसका था। धीरे धीरे हमारे प्रेम की बात गाँव में फैल थी। मैंने कहा- "मेरा लाहौर का एक मित्र मिल गया गई। मेरे भाई और उसके माता-पिता को पता चल गया। था। उसका घर देखने चला गया था। वह चुप उन्होंने हमारी सगाई कर दी। मेरी प्रसन्नता का ठिकाना हो गया।
न रहा । परन्तु मेरे इस सुख में एक दुख का काँटा भी
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