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संख्या १ ]
सन्ध्या का अन्धकार प्रगाढ़ हो जाने पर दत्त-बहू वसु के यहाँ से लौटकर घर जा रही थीं। साथ में उनका नौकर राम था। वह लालटेन लेकर उनके पीछे पीछे चल रहा था । दूर से ही उन्हें लालटेन के क्षीण आलोक में सफ़ेद वस्त्र से ढँकी हुई मनुष्य की एक मूर्ति दिखाई पड़ी । उसे देखकर पहले तो वे कुछ डरीं, परन्तु बाद का साहस करके आगे बढ़ीं। कुछ ही और आगे आने के बाद उन्होंने देखा कि एक दीवार के सहारे से खड़ी हुई कोई लड़की फूट फूट कर रो रही है । दत्त बहू की अवस्था प्रायः ढल चली थी, और वृद्धता के प्रभाव से उनकी दृष्टि भी कुछ क्षीण हो गई थी। इससे वे पहले लड़की को पहचान न सकीं । धीरे धीरे उसके समीप जाकर उन्होंने पूछा- तुम कौन हो भाई ?
शनि की दशा
दत्त - बहू बासन्ती की मामी का श्राचरण जानती थीं । माता-पिता से हीन बेचारी बासन्ती को वह बहुत ही निष्ठुरता के साथ दण्ड दिया करती है, यह बात भी उनसे छिपी नहीं थी । अतएव उसकी बात से वे ज़रा भीश्चर्य चकित नहीं हुई । कुछ क्षण के लिए वे निस्तब्ध भर हो गईं। उन्होंने कहा — निकाल क्यों दिया है ? तुमने क्या किया था ?
बासन्ती ने कहा- मैंने कुछ नहीं किया था। भैया से एक कटोरी टूट गई है, परन्तु विश्वास नहीं करतीं। कहती हैं कि यह कटोरी तुम्हीं से टूटी है । इसी लिए उन्होंने मुझे मारकर निकाल दिया है। भला इतनी रात को मैं कहाँ जाऊँ बड़ी मामी ?
दत्त-बहू ने समझा-बुझाकर बासन्ती को शान्त किया । उन्होंने कहा- तुम डरती किस बात के लिए हो बिटिया ? चलो, तुम मेरे घर चलो ।
दत्त- बहू का कण्ठ- स्वर सुनकर बासन्ती के रुदन का वेग और भी बढ़ गया । उन्होंने लालटेन लेकर उसके मुँह की ओर देखा तब वे बासन्ती को पहचान सकीं । उसके शरीर पर हाथ रखकर उन्होंने पूछा- क्यों रे बासन्ती, तू इतनी रात में यहाँ कैसे ?
बीच में ही बात काट कर दत्त - बहू ने कहा - तो इतनी रात में तुम यहाँ अकेली ही पड़ी रहोगी ? यह कैसे हो सकता है ? तुम्हें कोई भय नहीं है । तुम मेरे साथ चलो । साथ जाने के लिए दत्त - बहू ने बासन्ती को तैयार कर बड़ी कठिनाई से अपने आपको सँभाल कर उसने लिया । उसे लेकर वे घर की ओर चलीं। मन ही मन वे कहा-मामी ने मुझे घर से निकाल दिया है।
बासन्ती की प्रशंसा करने लगीं। दत्त-बहू काफ़ी चतुर थीं। वे समझ गई कि मारने से ही बासन्ती का माथा फूट गया है, परन्तु इस बात का यह प्रकट नहीं करना चाहती । इतनी बड़ी लड़की की यह बुद्धिमत्ता देखकर वे अवाक् हो गईं ।
एकाएक दत्त - बहू की दृष्टि बासन्ती की साड़ी की ओर गई। उसे देखकर तो वे सन्नाटे में आ गई। उन्होंने
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उत्कण्ठित भाव से कहा- यह क्या हुआ है ? तुम्हारे कपड़े में क्या लगा है ? इतना रक्त कहाँ से आया ? राम रे ! देखो न, साड़ी की साड़ी रक्त से भीग गई है । छिः ! छिः ! वह क्या बिलकुल राक्षसी ही है ! ऐसी अँधेरी रात में जब कि पानी बरस रहा है, ज़रा-सी लड़की को बाहर निकाल दिया । आप घर में आराम से सो रही है । चलो बिटिया, तुम मेरे घर चलो। कैसे लग गया है ? शायद उसी ने मारा है ।
रक्त पोंछते
सूत्रों से
दत्त-बहू ' ने अपने अञ्चल से बासन्ती का पोंछते पूछा- किस चीज़ से मारा है ? रुँधे हुए स्वर से बासन्ती ने कहा- उन्होंने मारा नहीं बड़ी मामी? मैं स्वयं गिर पड़ी हूँ, इससे माथा फूट कर रक्त बहने लगा है । मैं...... अब...... .. नहीं चलूँगी । नहीं तो मामी और भी......
बासन्ती के माता-पिता तो थे नहीं कि उसके लिए चिन्तित होते । इधर मामी को रात्रि के समय में उस
नाथिनी को खोजने की आवश्यकता ही नहीं मालूम पड़ी । स्वयं श्राराम से खा-पीकर वह पड़कर रही ।
इधर बासन्ती को साथ में लेकर दत्त-बहू घर के द्वार पर पहुँचीं। उन्होंने ऊँचे स्वर से पुकारा - विशू ! ज़रा सुन तो ! जल्दी से आना ।
उनकी आवाज़ सुनते ही एक सुन्दर युवक घर के भीतर से निकल आया। उसने कहा- क्या बात मा ?
पुत्र को सामने देख कर उन्होंने कहा - हुा है मेरा सिर । देखो न, इस नन्हीं सी लड़की को राक्षसिन ने एकदम मार डाला है। बेचारी का माथा फूट गया है, जिससे रक्त बह रहा है । इसमें कोई दवा तो लगा दे ।
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