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Το
सरस्वता
लिखना बन्द कर कुछ क्षणों तक वह निश्चल बैठा रहता । कुछ देर यही तमाशा देखता रहा । फिर साहस करके द्वार खटखटाया। उसने कुछ क्षणों के बाद द्वार खोला, परन्तु न वहाँ पुस्तक थी और न वह कापी थी, जिसमें नक़ल कर रहा था । उसने आश्चर्य से मेरी ओर देखते हुए प्रश्न किया- "इतनी रात को क्या काम श्रा पड़ा ?"
मैंने कहा- कुछ नहीं। नींद नहीं था रही थी । तुम्हारे कमरे में प्रकाश देखा तो चला श्राया । "अच्छा किया ।" कहकर उसने कुर्सी बढ़ा दी। मैं रहस्य समझ गया था, इस कारण पढ़ाई की चर्चा करना उचित न समझा, सिनेमा इत्यादि की बातें करता रहा। वह सिर नीचा किये सुन रहा था, और मेरे नेत्र उसके मुख पर जमे थे । नरेन्द्र के हाथ में एक काग़ज़ का पुर्जा था, जिसे उसने मेरी दृष्टि बचाकर फेंक दिया । परन्तु उसके अनजाने
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में वह पुर्जा मेरे पैरों के समीप ही आ गिरा। थोड़े ही प्रयत्न से वह पुर्जा मेरे हाथों में आ गया। उसके पढ़ने की उत्सुकता ने अधिक देर वहाँ न बैठने दिया, नींद का बहाना करके खिसक श्राया। कमरे में आकर मैंने उस पुर्जे को पढ़ा। बड़े बड़े अक्षरों में लिखा था - "संसार में जो किसी की सहानुभूति और प्रेम का पात्र न बन सकाजिसके जीवन का कोई मूल्य नहीं - भगवन्, तुम्हीं बताओ वह निर्धन जीवित रहकर क्या करे ?" मेरा गला भर आया । अपना प्रेम और सहानुभूति उस पर निछावर करने के लिए, तथा उसे सान्त्वना देने के लिए, मैं उसके कमरे की ओर गया ।
मैं क्षण भर सूने में रो लूँ
लेखक, श्रीयुत रामानुजलाल श्रीवास्तव
[ भाग ३८
उसी प्रकार खिड़की भिड़ी थी, द्वार बन्द था, और किताब खुली हुई थी, मैंने निर्भीकता से खिड़की खोलकर पुकारा - " नरेन्द्र !” उसके नेत्र स्वभावतः मेरे नेत्रों से मिल गये। मैंने देखा, वह रो रहा है ।
मैं क्षण भर सूने में रो लूँ—दे दो इतना अधिकार मुझे | फिर यह न करूँगा कटु लगता है, कोई भी व्यवहार मुझे || तुमने मुझको बाँधा हँसकर, मैंने तुमको बाँधा रोकर, - अब कहते हैं उपचार तुम्हें-- सब कह कहकर बीमार मुझे || ते सब देते कुछ भी नहीं - ऐसा कहना नादानी है; तुमने त्रिभुवनपति बना दिया, दे स्वप्नों के संसार मुझे || दोनों मैंने मूँदी व चार आँखें हो जाने दोसुनने दो किंकिरिण की रुनझुन औ' पायल की झंकार मुझे || पडित जी पोथी उलट-पुलट परलोक की बातें किया करें, जो करता हूँ इस पार सदा वह करना है उस पार मुझे || होनी-अनहोनी सब देखी, बस यही देखना बाक़ी हैअब अन्त समय आकर कोई, क्या कर जायेगा प्यार मुझे ? यह कैसी छेड़ निकाली है; सुधि में आकर मत छेड़ो । तक़दीर बुलाने आई है, अब जाने दो सरकार मुझे || सच कहता हूँ मैं यह समझ - जीवन का सौदा खूब हुआ; मर जाने पर यदि मिल जाये - दो फूलों का उपहार मुझे ||
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