Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
२८ ]
आस्थाएँ जागृत हुईं और मैंने अनुभव किया कि वे एक आस्थावान साधक और विद्वान् श्रावक हैं। समाज के विद्वानों के प्रति मेरे हृदय में हमेशा ही श्रद्धा रही है और आज भी है, क्योंकि, विद्वान् ही समाज के लिये जीवन है ।
इन्दौर के बाद जब परम पूज्य एलाचार्य मुनि श्री विद्यानन्दजी महाराज का चातुर्मास सहारनपुर में था तब पुनः आपके दर्शनों का सौभाग्य मिला। मैं श्रापके घर गया । आपने मेरे प्रति बड़ा आदर व वात्सल्य प्रदर्शित किया व वहीं सामाजिक विषयों पर चर्चाएँ हुईं । मेरी मान्यता है कि वे सिद्धान्त ग्रन्थों के अध्ययनशील, महान् ज्ञाता विद्वान् थे । उनके विचारों से, चिन्तन से और समय-समय पर पत्रों में प्रकाशित लेखों से समाज के लोगों को प्रेरणाएँ मिली । ऐसे साधनारत विद्वान् के प्रति श्रद्धा सुमन अर्पित करता हुआ मैं अपने आपको धन्य मानता हूँ और यही कामना करता हूँ कि दिवंगत आत्मा को शान्ति लाभ हो और निकट भावी काल में मनुष्य भव धारण करके वह पुनीत आत्मा कर्मों से मुक्त होकर मोक्ष स्थान पावे ।
यथार्थ - श्रात्मार्थी
* प्रो० खुशालचन्द्र गोरा वाला भदैनी, वाराणसी
लगभग तीस वर्ष पूर्व एक रात्रि को दिल्ली में चल रही विचारगोष्ठी में एक अन्तरंग - बहिरंग विरक्त, गम्भीर विचारक मुद्रा के प्रौढ़ व्यक्ति ने जब श्रीमान् पं० कैलाशचन्द्रजी आदि के साथ मेरा भी प्रति अभिवादन किया तो मैं धर्म सङ्कट में पड़ गया और मैंने उनसे निवेदन किया कि जैन विनय जो कुछ भी हो किन्तु वैदिकविनय के अनुसार मैं आपका अनुज हूँ । अतः आपका सादर अभिवादन मेरे शुभ को कम करेगा, क्योंकि आप स्वयंबुद्ध अभीक्ष्ण-ज्ञानोपयोगी, विरक्त तथा श्रात्मार्थी अग्रज हैं, फलतः मेरे प्रणम्य । विशेषकर इसलिये कि कानूनीदलाली ( वकालात ) छोड़कर आपने स्व-अर्थ साधना को अपनाया है जो कि इस अवसर्पिणी चक्र में दुष्कर है । अब तक मैं इन प्रौढ़ साधर्मी को जैन-सन्देश में छपने वाले 'शंका-समाधान' स्तम्भ के लेखक के रूप में; नाम से ही जानता था । उस रात्रि को इन श्री रतनचन्द मुख्तार से भेंट करके मन में आया कि “जयचन्द " आदि नाम रखकर भयंकर भूलकर्ता ज्योतिषी भी, कभी-कभी " यथा नाम तथा गुण: " के अनुसार नामकरण कर देते हैं ।
अपनी खूब चलती मुख्तारी को छोड़कर स्वाध्याय और संयम साधना में मुड़ना वास्तव में मुख्तार साहब की पूर्वजन्मों की साधना का ही सुफल है । अन्यथा आज के भोगी-युग में; योग की बात कैसे इनके मन में आयी ? यदि ये तन थे तो इनके अनुज वकील भी इस साधना के रथ की धुरा ( नेमि ) बन गये । और दोनों भाइयों ने जिनालय को ही अपने तत्त्वज्ञान की कचहरी बना दिया । तथा उसी रूप में इनका तत्त्वबुभुत्सु-जीवन चलता रहा ।
मुख्तार सा० को जैन वाङमय की सर्वाधिक उपस्थिति ( स्मृति ) थी, किन्तु उनकी दिन चर्या तदवस्थ थी । न साधना में कमी थी न स्वाध्याय में । प्रयत्नपूर्वक ये ख्याति-पूजा से भी भागे हुए थे । और लोभ का तो इनके सामने प्रश्न ही नहीं था । आपने लगभग ४० वर्ष पूर्व जो परिग्रहपरिमाण किया था, आयु के अन्त तक आप उस पर दृढ़ रहे । जबकि रुपये की क्रय शक्ति प्राज दशमांश रह गयी है ।
इस विकट आर्थिक दृष्टि के युग में भी ब्र० रतनचन्दजी ने अपना सीमित परिग्रह भी बेच - बाच कर घटाया ही था और अत्यन्त सावधानी के साथ उतना ही खर्च अपने ऊपर करते थे, जितने में अत्यन्त संयत एवं विरक्त दम्पति कर सकता था ।
कि ४० वर्ष पहिले
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