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( २६ ) व्यापकत्ववाला जो अंश है, उसका विरोध परोक्ष रूप से ही सही, कथित व्यभिचार करेगा। क्योंकि जो हेतु साध्य और साध्याभाव दोनों के साथ रहेगा, उस हेतु की व्यापकता उस साध्य में नहीं जा सकती। व्यापक होने के लिए यह आवश्यक है कि व्याप्य के अधिकरण में व्यापक का अभाव न रहे । कथित व्यभिचारी हेतु के आश्रय में तो साध्य का अभाव रहता है। अतः साध्य कभी भी व्यभिचारी हेतु का व्यापक नहीं हो सकता। इस प्रकार व्याप्ति के उक्त स्वरूप मानने के पक्ष में भी कथित व्यभिचार दोष से युक्त हेतु अवश्य ही सव्यभिचार हेत्वाभास होगा ।
किन्तु उक्त व्याप्तिशरीर का एक अंश और है 'व्यापकीभूत साध्य का हेतु के साथ सपक्षों में रहना'। इस अंश को विघटित करनेवाला दोष भी अगर हेतु में रहेगा तो भी वह 'व्यभिचार' दोष से ही युक्त होने के कारण 'सव्यभिचार' हेत्वाभास होगा क्योंकि सामान्यतः व्याप्ति का विघटन ही व्यभिचार होता है ।
___ व्याप्ति के उक्त द्वितीय अंश का विघटन दो प्रकारों से सम्भव है। जिस स्थल में कोई सपक्ष या विपक्ष नहीं है वहाँ साध्य का हेतु के साथ सपक्ष में रहना संभव नहीं होगा क्योंकि वहाँ कोई सपक्ष ही नहीं है । एवं जहाँ संसार के सभी पदार्थ पक्ष होंगे, वहाँ भी सपक्ष का मिलना सम्भव नहीं होगा। अतः ऐसे स्थलों में भी हेतु के साथ साध्य का सामानाधिकरण्य सपक्ष में सम्भव नहीं होगा । पहिले का उदाहरण है 'शब्दो नित्यः शब्दत्वात्' । यहाँ शब्दत्व हेतु केवल शब्द में ही है। शब्द ही पक्ष है। पक्ष में साध्य अनिर्णीत रहता है। सपक्ष में साध्य और हेतु दोनों जो पहिले से निश्चित रहना चाहिए। नित्यत्व निर्णीत है आकाशादि में, वहाँ शब्दत्व हेतु नहीं है। शब्दत्व निर्णीत है शब्द में, वहाँ नित्यत्व रूप साध्य ही निर्णीत नहीं है। अतः ऐसे स्थलों में सपक्ष न मिलने के कारण सपक्ष में साध्य और हेतु का सामानाधिकरण्य संभव न होने से व्याप्ति सम्भव न होगा। अतः शब्दत्व हेतु में भी सव्यभिचार हेत्वाभास होगा। किन्तु नित्यत्व रूप साध्य का अभाव निर्णीत है घटादि अनित्यवस्तुओं में, वहाँ शब्दत्व भी नहीं है। अतः पूर्व कथित व्यभिचार दोष यहाँ सम्भव नहीं है। सुतराम् यहाँ नित्यत्व हेतु का केवल पक्ष में रहना, किसी सपक्ष या विपक्ष में न रहना ही व्याप्ति का विघटक है। इसको 'असाधारण' नाम का व्यभिचार कहते हैं। क्योंकि यह हेत्वाभास साध्य के अधिकरण और साध्याभाव के अधिकरण दोनों में साधारण रूप से सामान्य रूप से नहीं है, जैसे कि साधारण हेत्वाभास रहता है । यह शब्दत्व हेतु केवल शब्द रूप पक्ष में ही है, अतः उक्त शब्दत्व हेतु 'असाधारण' नाम का सव्यभिचार है।
- इसी प्रकार जिस स्थल में संसार के सभी वस्तु पक्ष होंगे-जैसे 'सर्वमभिधेयं प्रमेयत्वात्', ऐसे स्थलों के हेतु में भी उक्त समानाधिकरण्य संभव नहीं होगा। क्योंकि प्रकृतस्थल में संसार के सभी वस्तु पक्ष के अन्तर्गत आ गये हैं। सपक्ष के लिए कोई नहीं बचा है। सपक्ष को पक्ष से भिन्न होना चाहिए। अतः ऐसे स्थलों में भी हेतु के व्यापक साध्य का किसी सपक्ष में हेतु के साथ रहना संभव नहीं होगा। अतः इस
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