________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
( २७ ) सिद्धि के रहते हुए पक्षता रूप कारण का संबलन संभव ही नहीं है। अतः एक अनुमिति के बाद दूसरी अनुमिति की आपत्ति नहीं दी जा सकती।।
पक्षता के ये जितने भी लक्षण कहे गये हैं, उन सभी लक्षणों का तत्त्वचिन्तामणिकार ने खण्डन किया है । खण्डन की युक्तियों को विस्तृत रूप से चिन्तामणि के पक्षता प्रकरण में देखना चाहिए । संक्षेप में तत्त्वचिन्तामणि कार कहना है कि एक अनुमिति के रहते हुए परामर्शादि सभी कारणों के रहने पर भी जब दूसरी अनुमति नहीं होती है, तो पहली अनुमिति या सिद्धि को दूसरी अनुमिति का प्रतिबन्धक मानना पड़ेगा। क्योंकि और सभी कारणों के रहने पर भो जिसके रहते कार्य उत्पन्न न हो सके, उसे ही कार्य का प्रतिबन्धक कहा जाता है। प्रतिबन्धक का अभाव भी कार्य का एक कारण ही है । अतः प्रकृत में सिद्धि का अभाव भी अनुमिति का एक कारण है। जिसके चलते एक अनुमिति के बाद तुरत दूसरी अनुमिति नहीं हो जाती । अतः सिद्धि का अभाव ही पक्षता है। किन्तु कभीकभी एक सिद्धि के रहते हुए भी विषय को विशेष प्रकार की जानने की इच्छा से तुरत दूसरी अनुमति होती है। जैसे की आत्मा को विशेष प्रकार से सजाने की इच्छा से आत्मा के श्रवण रूप सिद्धि के बाद भी मनन ( अनुमिति ) का विधान 'आत्मा वारे श्रोतव्यो मन्तव्यः' इत्यादि श्रुतियों के द्वारा किया गया है । अगर जिस किसी भी प्रकार की भी सिद्धि के रहने पर दूसरी अनुमि.ते रूप सिद्धि बिलकुल ही न हो, तो फिर उक्त विधान असङ्गत हो जाएगा। अतः इतना इसमें जोड़ना आवश्यक है कि विशेष प्रकार की अनुमिति या सिद्धि की इच्छा रहने पर एक सिद्धि के रहने पर भी दूसरी अनुमिति होती है। अतः सामान्य रूप से सभी सिद्धियाँ अनुमिति की विरोधिनी नहीं हैं, किन्तु अनुमिति की इच्छा से असंश्लिष्ट अथवा यों कहिये कि सिषाधयिषा के विरह से युक्त सिद्धि की अनुमिति की विरोधिनी है । फलतः सिषाधयिषा के विरह से युक्त जो सिद्धि, उसका अभाव हो अनुमिती का पक्षता रूप कारण है। इसको समझने के लिए अनुमिति की इन तीन स्थितियों को समझना आवश्यक है । (१) जहां परामर्श के बाद केवल अनुमिति रूप सिद्धि रहेगी वहां उस सिद्धि के अव्यवहित उत्तर क्षण में अनुमिति नहीं होगी । क्योंकि यहां कथित पक्षता रूप कारण नहीं है। यह सिद्धि अनुमित्सा या सिषाधयिषा से युक्त नहीं है, सिषाधयिषा के विरह से युक्त है। अतः यह सिद्धि अनुमिति का प्रतिबन्धक है। सुतराम् प्रतिबन्धकाभाव रूप कारण या कथित पक्षता रूप कारण के न रहने से अनुमिति का प्रतिरोध होता है। (२) जहाँ परामर्शादि कारणों के साथ अगर सिषाधयिषा भी है तो फिर उक्त परामर्शजनित अनुमिति रूप सिद्धि के बाद पुनः अनुमिति होगी। क्योंकि यह अनुमिति रूप सिद्धि सिषाधयिषा से युक्त है, सिषाधयिषा के विरह से युक्त नहीं है। अतः सिषाधयिषा के विरह से युक्त न होने के कारण यह सिद्धि अनुमिति का प्रतिबन्धक नहीं है। अनुमिति का प्रतिबन्धक कोई दूसरी सिद्धि है, जिसमें सिषाधयिषा का सम्बन्ध नहीं है। उसका यहाँ अभाव है, अतः पक्षता रूप कारण के रहने से अनुमिति होगी । (३) जहाँ सिद्धि नहीं है वहाँ सिषाधयिषा रहे या न रहे-दोनों ही स्थितियों में अनुमिति होगो ही। क्योंकि यहाँ कोई भी सिद्धि नहीं है, अतः सिषाधयिषा के विरह से युक्त सिद्धि भी नहीं है। सुतराम् सिषाधयिषा के विरह से युक्त सिद्धि का
For Private And Personal