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( २५ )
अनन्त प्रकार का हो सकता है । इसकी कोई संख्या निर्णित नहीं हो सकती । यह सम्बन्ध ऐसे दो वस्तुओं का भी हो सकता है, जिन्हें साधारण सम्बन्ध से कभी परस्पर सम्बद्ध होने की कल्पना भी नहीं की जा सकती । ( १ ) वृत्तितानियामक और ( २ ) वृत्तिता का अनियामक भेद से सम्बन्ध दो प्रकार का है । जिस सम्बन्ध से आधार - आधेयभाव की प्रतीति हो उसे 'वृत्तिता का नियामक' सम्बन्ध कहते हैं । ये संयोग समवायादि नियमित प्रकार के ही हैं । जिससे दो सम्बन्धियों में केवल सम्बद्ध मात्र होने की प्रतीति हो उसे वृत्तिता का अनियानक सम्बन्ध कहते हैं ।
जिस ज्ञान के विशेष्य में विक्षेषण की सत्ता वस्तुतः रहे उसी ज्ञान को 'प्रमा' कहते हैं यथार्थ चाँदी में जो 'इदं रजतम्' इस आकार का ज्ञान उत्पन्न होता है वह 'प्रमा' ज्ञान है, क्योंकि ज्ञान का विशेष्य या उद्देश्य है चाँदी ( रजत ) उसमें रजतत्व रूप विशेषण की या प्रकार की वस्तुतः सत्ता है, अतः उक्त ज्ञान 'प्रमा' । किस वस्तु में किस वस्तु की यथार्थ सत्ता है ? इस प्रश्न का यह समाधान यह है जिस विशेष्य में विशेषण के सम्बन्ध की सत्ता रहे, उसी विशेष्य विशेषण की यथार्थ सत्ता है । प्रकुत उदाहरण के रजत रूप विशेष्य में रजतत्व जाति का समवाय सम्बन्ध है अतः रजत्व की सत्ता रजत में है । शुक्तिका में जो इदं रजतम्' इस आकार का ज्ञान उत्पन्न होता है वह 'प्रमा' इस लिए नहीं है कि इस ज्ञान के विशेष्य शुक्तिका में रजतत्व का समवाय नहीं है । अतः शुक्तिका में रजत्व का ज्ञान प्रमा न होकर 'अप्रमा' है । फलतः प्रमा के विपरोत अर्थात् जिस ज्ञान के विशेष्य में विशेषण की सत्ता न रहे उस ज्ञान को ही 'अप्रमा' या अविद्या या भ्रम कहते हैं ।
यथार्थ ज्ञान के भेदादि इस ग्रन्थ में विस्तृत रूप से वर्णित हैं। कथित प्रमाज्ञान या यथार्थज्ञान के दो भेद हैं ( १ ) प्रत्यक्ष और ( २ ) अनुमिति । शब्दादिजन्य जितने भी प्रमाज्ञान हैं वे सभी प्रायः अनुमिति में ही अन्तर्भूत हैं । फलतः प्रमाकरण भी अर्थात् प्रमाण भी ( १ ) प्रत्यक्ष और ( ३ ) अनुमान भेद से दो ही प्रकार के हैं, शब्दादि जितने भी प्रकार के प्रमाज्ञान हैं, वे सभी इन्हीं दोनों में से किसी करण से उत्पन्न होते हैं ।
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निष्पन्न होता है अर्थात् विषय के
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प्रत्यक्ष शब्द 'प्रति' शब्द और 'अक्ष' शब्द से 'प्रतिगतम् अक्षि' या 'अक्ष्याक्षिप्रति वर्त्तते' इन दोनों व्युत्पत्तिओं के द्वारा प्रकृत में अर्थ के साथ सम्बद्ध इन्द्रिय ही प्रत्यक्ष शब्द से अभीष्ट है साथ सम्बद्ध इन्द्रिय ही प्रत्यक्ष प्रमाण है । इस प्रमाण के द्वारा उत्पन्न यथार्थ ज्ञान ही 'प्रत्यक्ष' रूप प्रमिति है । फलतः इन्द्रिय ओर अर्थ के संनिकर्ष से जो यथार्थ ज्ञान उत्पन्न हो वह है प्रत्यक्ष-प्रमिति और इस प्रमिति का कारण ही प्रत्यक्ष प्रमाण है । प्रत्यक्ष के प्रसङ्ग में और विशद विवेचन इस ग्रन्थ में देखना चाहिए ।
'अनु' पूर्वक 'मा' धातु से अनुमान शब्द बना है । 'अनु' पश्चात् | 'पश्चात् ' शब्द अपने अर्थबोध के लिए किसी और अवधि की है । प्रकृत में वह अवधि है 'लिङ्गपरामर्श' । अर्थात् लिङ्गपरामर्श के ज्ञान उत्पन्न हो उसे 'अनुमिति' कहते हैं । इसी दृष्टी से 'परामर्शजन्यं ज्ञानमनुमितिः'
शब्द का अर्थ है आकांक्षा रखता पश्चात् ही जो
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