________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
( २८ ) अभाव भी अवश्य है। अतः अनुमिति होगी। विस्तृत ज्ञान के लिए अध्यापकों का सहाय्य अपेक्षित है।
हेत्वाभास किसी भी विषय के तत्त्व को अनुमान के द्वारा समझने के लिए जिस प्रकार हेतुओं को समझना आवश्यक है, उसी प्रकार जो हेतु नहीं हैं किन्तु हेतु की तरह दीखते हैं, उन हेत्वाभासों को भी समझना आवश्यक है। अगर ऐसा न मानें तो हेतुओं और हेत्वाभासों के संमिश्रण से कदाचित् अतत्त्व भी तत्त्व की तरह प्रतिभात होकर अन्त में अभीष्ट प्रवृत्ति को विफल कर देंगे, और अनभीष्ट स्थिति में भी डाल देंगे। अतः हेतुओं की तरह विशेष रूप से आचार्यों ने हेत्वाभासों का भी निरूपण किया है ।
'हेत्वाभास' शब्द दो व्युत्पत्तिओं से निष्पन्न होता है । (१ ) हेतोरभासा हेत्वाभासाः और ( २) हेतुवदाभासन्ते इति हेत्वाभासाः। इन में पहिली व्युत्पत्ति के अनुसार हेत्वाभास शब्द का अर्थ होता है 'हेतु का दोष' ।
___ महर्षि गौतम ने हेत्वाभासों को (१) सव्यभिचार ( २ ) विरुद्ध (३) प्रकरणसम (४) साध्यसम और (५) कालात्ययापादिष्ट भेद से पाँच प्रकारों का माना है, और सव्यभिचार हेत्वाभास को समझाने के लिए 'अनैकान्तिकः सव्यभिचारः' इस सूत्र की रचना की है । जो हेतु साध्य या साध्याभाव इन दोनों में से किसी एक के साथ नियमित रूप से सम्बन्ध न हो, वही हेतु 'अनैकान्तिक' है । अर्थात् जो हेतु साध्य और साध्याभाव दोनों के साथ रहे केवल साध्य के ही साथ न रहे, वही हेतु 'अनैकान्तिक' है । सव्यभिचारशब्द के अर्थ की आलोचना से भी इसी अर्थ की पुष्टि होती है। 'व्यभिचारेण सहितः सव्याभिचारः' इस व्युत्पत्ति से सव्यभिचार शब्द बना है। व्यभिचार' शब्द 'वि' 'अभि' और 'चार' इन तीन शब्दों से बना है। इनमें 'वि' शब्द विरुद्धार्थक है और 'अभि' शब्द उभयार्थक है । 'चार' शब्द सम्बन्ध का बोधक है। इसके अनुसार परस्पर विरोधी दो वस्तुओं के साथ अर्थात् साध्य और साध्याभाव के साथ किसी आश्रय में हेतु का रहना ही व्यभिचार है। यह व्यभिचार अर्थात् साध्याधिकरण और साध्याभावाधिकरण दोनों में समान रूप से रहना जिस हेतु का हो, वही 'सव्यभिचार' है।
साध्य के साथ नियत सम्बन्ध ही हेतु की व्याप्ति है। इस व्याप्ति के बल से ही हेतु साध्य का ज्ञापक होता है । जो हेतु उक्त प्रकार से सव्यभिचार या अनैकान्तिक होगा वह कभी कथित रीति से व्याप्तियुक्त नहीं हो सकता। अतः व्यभिचार युक्त हेतु 'सव्यभिचार' नाम का हेत्वाभास है, हेतु नहीं ।
किन्तु बाद में सूक्ष्म निरूपण से यह निष्पन्न हुआ कि व्याप्ति का उक्त स्वरूप ठीक नहीं है । किन्तु हेतु के नियत सम्बन्ध से युक्त साध्य के साथ सपक्षों में हेतु का रहना ही हेतु की व्याप्ति है। इस प्रकार व्याप्तिशरीर के दो अंश माने गये, एक तो साध्य में हेतु का नियत सम्बन्ध अर्थात् व्यापकत्व, दूसरा हेतु के व्यापकीभूत साध्य का सपक्षों में हेतु के साथ रहना अर्थात् सामानाधिकरण्य । इस स्थिति में साध्य में हेतु के
For Private And Personal