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( २६ )
इस प्रकार अनुमिति के लक्षण मिलते हैं । व्याविज्ञान और पक्षधर्मताज्ञान इन दोनों से परामर्श उत्पन्न होता है । हेतु के आश्रय में साध्य का नियमित से रहना ही व्याप्ति है । पक्ष में हेतु का रहना ही पक्षधर्मता है । 'साध्यव्याप्यो हेतुः' यही व्याप्तिज्ञान का आकार है, और 'हेतुमान् पक्षः' यह पक्षधर्मताज्ञान का आकार है । अतः मिलकर इन दोनों से उत्पन्न परामर्श का स्वभावतः 'साध्यव्याप्यहेतुमान् पक्षः ' यह आकार होता है । इस परामर्श को ही 'तृतीयलिङ्गपरामर्श' भी कहते हैं । इस दृष्टि से पक्षधर्मता - ज्ञान हेतु का प्रथम ज्ञान है, और व्याप्तिविशिष्टहेतु का ज्ञान हेतु का दूसरा ज्ञान है, व्याप्ति और पक्षधर्मता इन दोनों रूपों से हेतु का परामर्श रूप तीसरा ज्ञान होता है, अतः उसे " तृतीय लिङ्गपरामर्श " कहते हैं । इसके बाद ही अनुमिति की उत्पत्ति होती है ।
पक्षता
इस प्रसङ्ग में एक विचार उठता है कि प्रायः सभी ज्ञान दो क्षणों तक रहते हैं, तीसरे क्षण में उनका विनाश होता है । कथित परामर्श भी ज्ञान है, अतः वह भी दो क्षणों तक रहेगा । जिस क्षण में वह उत्पन्न होगा, उसके अव्यवहित उत्तरक्षण में जिस प्रकार की अनुमिति को उत्पन्न करेगा, इस अनुमिति के अगले क्षण में भी उसी प्रकार की अनुमिति को वह क्यों नहीं उत्पन्न करता ? क्योंकि कथित दूसरी अनुमिति के अव्यवहित पूर्वक्षण में अर्थात् पहिली अनुमिति की उत्पत्तिक्षण में परामर्श की सत्ता
है
। एवं परामर्श अनुमिति का अन्यनिरपेक्ष कारण है । परामर्श संबलन के बाद अनुमिति के लिए और किसी की अपेक्षा नहीं रह जाती । सुतराम् परामर्श अगर अपनी उत्पत्तिक्षण के अव्यवहित उत्तरक्षण में जिस विषय की जिस आकार प्रकार की अनुमिति को उत्पन्न करेगा, उसी आकार प्रकार की उसी विषय की दूसरी अनुमिति को भी अपने स्थितिक्षण के अव्यवहित उत्तरक्षण में फलतः पहिली अनुमिति के अव्यवहित उत्तरक्षण में उत्पन्न करने में कोई बाधा तो नहीं है ? किन्तु ऐसी बात होती नहीं है । अनुमान को जितने माननेवाले दार्शनिक हैं, उनमें से कोई भी एक आकार प्रकार क अनुमिति के रहते हुए उसी आकार प्रकार की दूसरी अनुमिति की सत्ता को स्वीकार नहीं करते । किन्तु किसी की स्वीकृति और अस्वीकृति मात्र पर वस्तु के सामर्थ्य को अन्यथा नहीं किया जा सकता । फलतः एक अनुमिति रूप सिद्धि के रहते हुए परामर्श के रहने पर भी दूसरी अनुमिति न हो सके, इसके लिए परामर्श के सामान ही अनुमिति का एक और साक्षात् कारण माना गया है जिसका नाम है 'पक्षता' । इसका ऐसा स्वरूप या लक्षण होना चाहिए, जिससे एक अनुमिति या अन्य किसी प्रकार की सिद्धि के रहते हुए कथित दूसरी अनुमिति की आपत्ति न हो सके । इसी प्रयोजन को सामने रखकर पक्षता के अनेक लक्षण किए गये हैं । जैसे कि ( १ ) सध्य का संशय ही पक्षता है । ( २ ) अनुमित्सा ही पक्षता है । ( ३ ) अथवा अनुमित्सा की योग्यता पक्षता है । ( ४ ) सिद्धि का अभाव ही पक्षता है। पक्षता के इन सभी लक्षण करनेवालों की यहीं दृष्टि रही है कि अनुमिति या अन्य किसी भी प्रकार की सिद्धि के रहते हुए उक्त प्रकार के लक्षणों से आक्रान्त किसी भी पक्षता रूप कारण का रहना संभव न हो । क्योंकि सभी के साथ सिद्धि का विरोध है । अतः
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