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( २४ ) पश्चाद्वर्ती की अपेक्षा ज्येष्ठ भी होता है । अतः इनमें भी अपेक्षाबुद्धि की आवश्यकता होती है । अतः अपेक्षाबुद्धि के नाश से इनका नाश होता है ।
परत्व और अपरत्व दोनों ही बुद्धिसापेक्ष हैं। अतः इनके निरूपण के बाद ही आकर-ग्रन्थों में बुद्धि का निरूपण किया गया है। तदनुसार मैं भी अब बुद्धि का निरूपण प्रारम्भ करता हूँ। बुद्धि के निरूपण में नव्यन्याय की दृष्टि से भी कुछ विषयों को समझाने का मैंने प्रयास किया है।
बुद्धि संसार के सभी व्यवहारों के मूल में बुद्धि ही काम करती है। संक्षेपतः (१) प्रमा ( विद्या) और (२) अप्रमा ( अविद्या ) इसके दो भेद हैं। इनमें अप्रमा के (१) संशय (२) विपर्यय ( ३ ) अनध्यवसाय और (४) तर्क, ये चार भेद हैं।। ... ज्ञान या बुद्धि को अच्छी तरह से समझने के लिए उसके विशिष्ट स्वरूप के प्रत्येक अंश को अच्छी तरह समझ लेना आवश्यक है। नैयायिकों और वैशेषिकों के मत में ज्ञान किसी विषय का ही होता है। बिना विषय के ज्ञान नहीं होते । ज्ञान में भासित होनेवाले विषय ( १) विशेषण (२) विशेष्य और (३) उन दोनों के संसर्ग, ये तीन प्रकार के हैं। 'विषय' का एक चौथा प्रकार भी है जो निर्विकल्पक-ज्ञान में भासित होता है । 'घटवद्भुतलम्' इस ज्ञान में मुख्यतः घट विशेषण है, और भूतल विशेष्य है, एवं संसर्ग वह संयोग है । जिसके कारण भूतल में घट का रहना सम्भव होता है। वैसे तो इसी ज्ञान में घट में घटत्व भी भासित होता है। अतः घटत्व भी विशेषण है, और घट भी विशेष्य है, एवं इन दोनों का समवाय भी संसर्ग है। इसी प्रकार भूतल में भूतलत्व और संयोग में संयोगत्व के भान होने के कारण भूतलत्व संयोगत्वादि और भी विशेषण हैं एवं घट भूतलादि और भी विशेष्य हैं। किन्तु ये गौण हैं। विशेषण को ही 'प्रकार' कहते हैं। ज्ञान के इन विषयों में ज्ञानीय विषयता' नाम का एक धर्म भी है जो विषयों के प्रकारविशेष्यादि के विभेदों के कारण (१) प्रकारता ( २ ) विशेष्यता और ( ३ ) संसर्गता भेद से तीन प्रकार का है। निर्विकल्पज्ञान के चौथे प्रकार के विषयों में रहनेवाली इन तीनों विषयताओं से भिन्न एक चौथी विषयता भी है। उक्त प्रकारता ही उस स्थिति में प्रायशः विधेयता कहलाती है जिसमें कि उसका आश्रय पहिले से ज्ञात न हो। विशेष्यता ही स्थिति विशेष में उद्देश्यता कहलाती है।
ऊपर जिस संसर्ग की चर्चा की गयी है बह विभिन्न दो व्यक्तियों में क्रमशः विशेष्यविशेषणभाव का सम्पादक वस्तु विशेष रूप है, 'दण्डी पुरुषः' इत्यादि स्थलों में चूँकि दण्ड का संयोग संसर्ग या सम्बन्ध पुरुष में है इसीलिए दण्ड विशेषण है और पुरुष विशेष्य है । सम्बन्ध (१) साक्षात् और ( २ ) परम्परा भेद से दो प्रकार का है। साक्षात् सम्बन्ध संयोग समवाय स्वरूपादि भेद से अनेक प्रकार के हैं। जिस सम्बन्ध के निर्माण में दूसरे सम्बन्ध की आवश्यकता हो उसे परम्परा सम्बन्ध कहते हैं। यह
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