________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
( २३ ) कथित संयोग । इसे 'आरम्भक' संयोग कहते हैं। क्योंकि यह संयोग घट रूप अवयवी द्रव्य का 'आरम्भक' अर्थात् 'उत्पादक' है। दूसरा संयोग है अनारम्भक संयोग, जैसे विभक्त कपालों का दूसरे देश के आकाश के साथ संयोग । इससे किसी द्रव्य की उत्पत्ति नहीं होती है। अतः इसे 'अनारम्भक' संयोग कहते हैं। फलतः वे दोनों संयोग परस्पर विरोधी हैं, अतः एक क्रिया रूप कारण से उन दोनों की उत्पत्ति नहीं हो सकती। अगर इसे मानने का हठ करें तो फूलते हुए कमल के विनाश की उक्त आपत्ति होगी। क्योंकि कमल के पत्रों का ऊपर की ओर जो परस्पर संयोग है, यह कमल का उत्पादक संयोग नहीं है । उस संयोग को नष्ट करनेवाला विभाग ही कमल का फूलना है। जो सूर्य किरणों के संयोग से उत्पन्न होनेवाली पत्रों की क्रिया से होती है । कमल के पत्रों का ही नीचे की ओर डण्टी के ऊपर अंश में भी परस्पर संयोग है। जो कमल का उत्पादक संयोग है। इस संयोग का विनाश उन रविकिरणों के उक्त क्रियाजनित विभाग से नहीं होता है। यदि आग्रहवश ऐसा माने तो कमल का विनाश मानना पड़ेगा, क्योंकि अवयवों का विशेष प्रकार संयोग ही अवयवी का उत्पादक है। एवं उक्त संयोग का विनाश ही अवयवी का विनाशक है। तस्मात् अवयवियों के उत्पादक संयोग के विनाशक विभाग और उक्त संयोग के अविनाशक विभाग दोनों की उत्पत्ति एक क्रिया से नहीं हो सकती। अतः प्रकृत में कपालों के संयोग को नष्ट करनेवाले विभाग की उत्पत्ति क्रिया से मानते हैं। और उन्हीं विभक्त कपालों का पूर्वदेशसंयोग के विनाशक विभाग की उत्पत्ति कपालों के उक्त विभाग से मानते हैं। अतः विभागजविभाग का मानना आवश्यक है।
दूसरे प्रश्न का यह समाधान है कि कथित आरम्भक संयोग के विरोधी विभाग से युक्त अवयवों का दूसरे आकाशादि देशों के साथ तब तक संयोग नहीं हो सकता जब तक की अवयवी विनष्ट नहीं हो जाता। अतः क्रिया से विभाग, विभाग से पूर्व ( आरम्भक ) संयोग का नाश, संयोग के इस नाश से घट का नाश जब हो जाएगा तभी घट के उत्पादक उक्त विभक्त कपालों का दूसरे देशों के साथ संयोग उत्पन्न हो सकता है। अतः उक्त रीति माननी पड़ती है ।
परत्व और अपरत्व परत्व और अपरत्व ये दोनों ही दैशिक और कालिक भेद से दो दो प्रकार के हैं। एक वस्तु से दूसरी वस्तु की दूरी दैशिक परत्व है और एक वस्तु का दूसरे वस्तु से समीप होना दैशिक अपरत्व है। ये दोनों ही आपेक्षिक हैं, अतः अपेक्षाबुद्धि ही इनके कारण हैं
और तीसरे अवधि की भी अपेक्षा होती है। जैसे कि पटना से काशी की अपेक्षा प्रयाग दूर है। एवं पटना से प्रयाग की अपेक्षा काशी समीप है।
कालिक परत्व का ही दूसरा नाम ज्येष्ठत्व है। एवं कालिक अपरत्व का ही दूसरा नाम कनिष्ठत्व है। कालिक परत्व और अपरत्व भी आपेक्षिक हैं। क्योंकि जो कोई व्यक्ति एक व्यक्ति से ज्येष्ठ होता है, वही अपने से पूर्ववर्ती की अपेक्षा कनिष्ठ भी होता है। एवं जो कोई व्यक्ति एक व्यक्ति से कनिष्ठ होता है वही अपने से
For Private And Personal