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उचित हैं।" युवराज ने कहा।
"अभी तो कोई ऐसी समस्या उत्पन्न हुई मुझे नहीं दिखती!"
"जो समस्या हमारे लिए जटिल मालूम पड़ती है, आपकी सूक्ष्म दृष्टि को वह कुछ भी नहीं लगेगी। शायद इसी कारण आपका ध्यान ही उस ओर नहीं गया होगा।"
"बात क्या है सो बताने की कृपा करें...''
"हमारे राज्य के सभी अधिकारी सन्तुष्ट रहें, वह उचित है, आवश्यक भी। असन्तुष्ट एवं अतृप्त होने से ये राज्य के लिए कभी खतरा बन सकते हैं। इसलिए हमारे उच्च अधिकारियों का कर्तव्य है कि वे इस बात का सदैव ध्यान रखें।"
__"मैं विश्वास दिना सकता है कि राजघराने के आश्रय में सभी अधिकारीगण तृप्त रहकर सेवा कर रहे हैं।"
"आपके इस आश्वासन के लिए हम कृतज्ञ हैं। जैसा आप समझते हैं यदि वैसा ही है तो हमें भी सन्तोष है। परन्तु एक बात हमें सुनने को मिली जिसमें हमें लगा कि कहीं अप्ति भी है। उस अतृप्ति के निवारण के लिए उसके स्वरूप
और उसके कारण का मालूम होना आवश्यक है।" कहकर परेवंग प्रभु चुप हो रहे।
प्रधान गंगराज ने एक बार राजकुमार की तरफ़ देखा। फिर प्रभु से कहा, "यात क्या है, बताने की कृपा करें तो क्या करना चाहिए-इस पर विचार किया जा सकता है। बात सान्नधान तक पहुँच गयी, प्रधान को मालूम ही नहीं हुई, इसका मुझे आश्चर्य है!”
बल्लाल के कान खड़े हो गये । प्रधान की तरफ़ उन्होंने देखा। आखिर ऐसी कौन-सी रहस्यमय बात होगी: जिज्ञासा कुछ अधिक बढ़ चली। चूँकि यह सारी बात उसके सामने शुरू की गयी थी, इसलिए राजकुमार बल्लाल को लगा कि जरूर ही इसका सम्बन्ध उससे हैं। वह अभी इसी उधेड़ब्न में था कि प्रभु पलंग से उठकर दीवार के साध रखे आसन पर ठीक से बैठ गये और बोले, ''क्या प्रधानजी को बह शंका हो गयी कि उनको बताये बिना सीधे हम तक बात पहुँचान जैसी कोई अन्य व्यवस्था भी है।"
'न, न। मेरे मन में कभी वह विचार नहीं आया। मुझे यह बहुत ही स्पष्ट रूप से और अच्छी तरह से मालूम है कि प्रभु मुझ पर कितना विश्वास रखते हैं। कभी इसमें व्यक्त या अव्यक्त किसी रूप में भी मुझमें गलत विचार नहीं आया, न आएगा। द्रोही चाहे कोई हो. वह चाहे माँ, बहिन, बेटा कोई हो वै दण्डनीय होंगे। दण्ट से ये बच नहीं सकते।"
4 :: पमहादेवी शान्तला : भाग दो