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"यदि उससे किसी अनिाट की आशंका हो तो उस बात को यहीं रोक देना चाहिए। इस तरह से उस पर विशेष दृष्टि रखने की आवश्यकता ही क्या है?" __ “इसका उत्तर तुम्हीं दे सकती हो। तुमसे ही उस बामशक्ति के बारे में ऐसे ऊँट-पटॉग विचार आये।"
"वह तो यही पुरानी बात हुई न। मैं ही भूल गयी थी। अब यह बात क्यों उखाड़ते हो?" ___ “परन्तु उस ताबीत में वह यन्त्र तो सुरक्षित है न? अव लुका-छिपी से कोई लाभ नहीं होगा। तुमने अभी भी इस पण्डित का पीछा नहीं छोड़ा। बिल्ली आँख मूंदकर दूध पीती जाय और समझे कि कोई नहीं देख रहा है.. यही अब तुम्हारी हालत हो गयी है। आइन्दा वह सब नहीं होना चाहिए। इन बातों को अभी से छोड़ देना होगा। वह जो अंजन लगाएगा, उसे यहीं हमारे घर में, हमारे ही सामने लगाए-इसकी व्यवस्था की गयी है। उसी दिन लससे सम्बन्धित सारी बातें बन्द हो जानी चाहिए। समझी ?"
वापब्धे का सिर अपने आप झुक गया।
"अभी तक तुम्हारे भाई को यह बात मालूम नहीं है। अमावस्या के दिन, हमारे यहाँ क्या गुल खिलेगा सो देखकर, उसके बाद मैं स्वयं तुम्हारे भाई को सारा विवरण दूंगा। इस बात से आइन्दा दण्टनाधिका जी को दूर रहना होगा। लाचार होकर इस तरह की रोक लगानी पड़ रही है।" दण्टनायक ने बड़े कड़े स्वर में कहा।
धोड़ी देर के लिए वहां खामोशी छा गयी। धीरे-धीरे चामन्चे ज्ट खड़ी हुई"मैं..." चामव्ये के मुंह से आगे कुछ नहीं फूटा। "चलों । ठीक है। मैंने जो कहा, याद रहे।" मरियाने ने अपनी बात दुहरायी।
चापब्बे वहाँ से सीधे अपने प्रसाधन-कक्ष में चली गयी। आराम करने के इरादे संपलंग पर पैर पसारकर दीवार से सटकर बैठ गयी। वह सारी बात पति को मालूम हो जाने और ऐसी डाँट पड़ने से वह जैसे निश्चेष्ट हो गयी थी, बस छाती की धड़कन ही वन्द नहीं हुई थीं। एकदम गुस्सा न दिखाकर बड़े संयम से उन्होंने बात कही थी। फिर भी वह भीतर-ही-भीतर काँप रही थी। उनका गुस्सा उसने देखा न हो-ऐसी बात न थी, उसे उनके गुस्से को शान्त करने का तरीक़ा भी मालूप था, परन्तु आज की हालत कुछ और थी। आज को उनकी इस कड़ाई के लिए उसके पास कोई दया नहीं थी : 'कितने ही गोपनीय ढंग से व्यवहार करूं तो भी बात खुल ही जाती है। ऐसी हालत में तो जीना ही मुश्किल है। इस सबका कारण वह शैतान शान्तला और उसकी पानको माँ पाचि (कब्बे) हैं। पहले शादी हो जाए मेरी बेटी महारानी हो जाए, दसके बाट इन लोगों को ठिकाने लगाऊँगी। अब
:: पट्टमष्टादेवी शान्तला : भाग दो