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11३३॥
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पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका । अर्थः-अमूल्य रत्नत्रय रूपी संपत्ति के धारीहोकर भी जो निग्रंथपदके धारक है तथा शान्तमुद्राकेधारी होनेपर भी जो कामदेव रूपी वैरीकी स्त्रीको विधवा करनेवाले है एसे वे उत्तमगुरु सदा नमस्कार करनेयोग्य हैं।
भावार्थ:-इस श्लोक में विरोधाभास नामक अलंकार है इसलिये आचार्य विरोधाभास को दिखाते हैं कि जिसके अमूल्य रत्नत्रय मौजूद है वह परिग्रह करके रहित कैसे हो सक्ता है। तथा जो शान्त है वह कामदेव की स्त्री को विधवा कैसे बनासक्ता है इसलिये ऐसे चमत्कारी गुरु सदा बन्दनीक ही है।
सारांश:-जोरत्नत्रयके धारी हैं तथा निग्रर्थ हैं और शान्त मुद्राके धारक हैं तथा कामदेव के जीतनेवाले हैं उनगुरुओंको सदा मैं मस्तक झुकाकर नमस्कार करता हूँ ॥ ५८ ॥
आचार्य परमेष्टी की स्तुति ।
शाल विक्रीड़ित। ये वाचारमपारसौख्यसुतरोवीजं परं पञ्चधा सद्वोधाः स्वयमाचरन्ति च परानाचारयन्त्येव च । प्रन्थाप्रन्थिविमुक्तमुक्तिपदवी माताश्च यैः प्रापितास्ते रत्नत्रयधारिणः शिवसुखं कुर्वन्तु नःसूरयः॥५॥
अर्थः-जो सज्ञानकेधारक आचार्य अपार जो सौख्यरूपी वृक्ष उसको उत्पन्न करनेवाले पांचप्रकारके आचारको स्वयं आचरण करते हैं तथा दूसरोंको आचरण कराते हैं तथा जहां पर किसी प्रकारके परिग्रहका लेश नहीं एसी मुक्तिको खयं जाते हैं और दूसरोंको पहुंचाते हैं इसलिये इस प्रकार निर्मलरत्नत्रय के धारी भाचार्यवर हमारेलिय मोक्षमुखको प्रदान करो ॥ ५९ ॥
वसंततिलका । भ्रान्तिप्रदेषु वहुवर्त्मसु जन्मकक्ष्ये पन्थानमेकममृतस्य परं नयन्ति । ये लोकमुन्नतधियः प्रणमामि तेभ्यस्तेनाप्यहं जिगमिषुर्गुरुनायकेभ्यः ॥६०॥
॥३२॥
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