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पचनन्दिपञ्चविंशीतका। तो आकाशमें बिजलीको भी स्थिर कहना पडेगा तथा संसारमें रमणीयता कहोगे तो इन्द्रजालमें भी रमणीयता कहनी पडेगी। इसलिये इसबातको मानों कि जिसप्रकार अनि शीतल नहीं होती उसीप्रकार परिग्रहधारियोंको कदापि मुक्ति नहीं हो सक्ती और जिसमकार विष अमृत नहीं होता उसीप्रकार इन्द्रियसुख भी कदापि सुख नहीं हो सक्ता तथा जिसप्रकार बिजली स्थिर नहीं होती उसीप्रकार यह शरीर भी स्थिर नहीं हो सक्ता तथा जिसप्रकार इन्द्रजालमें रमणीयता नहीं होती उसीप्रकार संसारमें भी रमणीयता नहीं हो सक्ती ।। ५५ ॥
मालिनी। स्मरमपि हृदि येषां ध्यानवन्हिप्रदीसे सकलभुवनमलं दह्यमानं विलोक्य ।
कृतभिय इव नष्टास्ते कषाया न तस्मिन्पुनरपि हि समीयुः साधवस्ते जयन्ति ॥ ५७॥ अर्थः-वे यतीश्वर सदा इसलोक में जयवंत है कि जिन यतीश्वरोंके हृदयमें ध्यानरूपी अग्नि के जाज्व ल्यमान होने पर तीनों लोक के जीतनेवाले कामदेवरूपी प्रवल योधाको जलते हुवे देख कर भयसेही मानों भागे गये तथा ऐसे भागे कि फिर न आसके ।
भावार्थ:-जिन मुनियों के सामने कामदेव का प्रभावहत होगया है तथा जो अत्यंतध्यानी है और कषायों कर रहित है उन मुनियों के लिये सदा मैं नमस्कार करता हूँ॥ ५७ ॥
अब आचार्य गुरुओंकी स्तुति करते हैं।
उपेन्द्रवज्रा। अनर्घ्यरत्नत्रयसम्पदोऽपि निग्रंथतायाः पदमदितीयम् । जयन्ति शान्ताः स्मरवैरिवश्वाः वैधव्यदास्ते गुरवो नमस्याः॥५८॥
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