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४ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) आत्मा के साथ कों के बन्ध के विषय में शंकाशील मानव
ये सब वस्तुएँ एक दूसरे के साथ बन्धन के रूप में प्रत्यक्ष बद्ध दिखाई देती हैं, किन्तु जीव (आत्मा) के साथ कर्मबन्ध चर्मचक्षुओं से प्रत्यक्ष नहीं दिखाई देता, इस कारण कतिपय नास्तिक, अविश्वासी, अश्रद्धालु तथा संशयशील मस्तिष्क वाले व्यक्ति कर्मबन्ध का अस्तित्व नहीं मानते। उनका कहना है-मिट्टी और पानी के सम्बन्ध में घट, तन्तुओं के परस्पर सम्बन्ध से पट आदि की तरह जीव और कर्म का सम्बन्ध या बन्ध प्रत्यक्ष नहीं दिखाई देता। फिर अमूर्त आत्मा (जीव) का मूर्त जड़ कर्मों से बन्ध कैसे हो सकता है? इन और ऐसे ही कुतर्कों के आधार पर वे लोग कर्मबन्ध का अस्तित्व मानने से इन्कार करते हैं।
संकटापन्न स्थिति में उनके द्वारा कर्मबन्ध का स्वीकार
किन्तु वे ही महाशय अथवा पापकर्मी, स्वच्छन्दाचारी नास्तिक जब चारों ओर से किसी अपरिहार्य संकट, असह्य कष्ट, दुःसाध्य व्याधि अथवा किसी विपत्ति से घिर ही जाते हैं, अथवा किसी स्वजन के वियोग से संतप्त होते हैं, या पापकर्मग्रस्त व्यक्ति स्वयं कदाचित् मरणासन्न स्थिति में होते हैं। चारों ओर से हाथ-पैर मारने, अथवा अनेक उपाय करने पर तथा पैसा पानी की तरह बहा देने पर भी जब उक्त संकट, कष्ट, रोग, संताप, विपत्ति एवं स्थिति आदि का निवारण नहीं होता, प्रश्न उलझता जाता है, तब वे ही लोग कर्मबन्ध के अस्तित्व को एक या दूसरे प्रकार से स्वीकार करते देखे गए हैं। उत्तराध्ययन सूत्र में ऐसे ही लोगों के मानस का सजीव चित्रण प्रस्तुत किया गया है-"इसके अनन्तर जब वह अज्ञानी जीव किसी आतंककारी रोग-विशेष के कारण ग्लान होकर परिताप पाता है, तब अपने बांधे हुए कर्मों का अनुप्रेक्षण (अन्वेषण-मनन) करता हुआ परलोक ( में प्राप्त होने वाले दुःखों) की भीति से भयभीत हो जाता है।" _ “अपने बांधे हुए कर्मों के अनुसार उन-उन (नरकादि) स्थानों में जाने वाला वह अज्ञानी जीव बाद में पश्चात्ताप करता है कि नरक में उत्पन्न होने के स्थान (कारण) जैसे मैंने सुने हैं,-श्रवण करके निश्चित किये हैं (वे बहुत ही भयंकर हैं।)'१
इसी प्रकार अज्ञानी जीवों या कर्मबन्ध को न मानने वाले व्यक्तियों को बाद में कर्मबन्ध का अहसास होता है और वे उनके कारण भविष्य में प्राप्त होने वाले दुःखद फलों का अनुमान करके .पछताते हैं, अथवा वर्तमान में उनके कारण प्राप्त हुए घोर परितापकारी फलों को देखकर दुःखित होते हैं। १. (क) तओ पुट्ठो आयंकेणं, गिलाणो परितप्पइ ।
पभीओ परलोगस्स, कम्माणुप्पेही अप्पणो । (ख) तत्थोववाइयं ठाणं, जहा मेऽयमणुस्सुर्य । अहाकम्मेहिं गच्छंतो, सो पच्छा परितप्पई ॥
-उत्तराध्ययन ५/११,१३
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