Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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शंका १ और उसका समाधान
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परिणमनकी सहायताले ही पुद्गल कर्मरूप परिणमन करते हैं और पुयल कर्मको सहायतासे ही जीव रागादि विभावरूप परिणमन करता है।
समयसारको ८२वीं गाथा भी ऐसी बातको मतला रही है कि ८० और ८१वीं गाधाओं के अनुसार चूंकि पुद्गलोंका ही कर्मरूप परिणमन होता है । पुद्गलों में होनेवाला कर्मरूप यह परिणमन आत्माका परिणमन नहीं है, वह तो उस परिणमनमें केवल निमित्तकारण (सहकारी कारण) या निमित्त कर्ता (सहकारी कर्ता) ही होता है। इसी प्रकार आत्माको ही समाविश्य परिजनन होता है। आत्मामें होनेवाला रागादिरूप बह परिणमन पुद्गलका परिणमन नहीं है, वह तो उस परिणमनमें केवल निमित्तकारण ( सहकारी कारण) या निमित्त कर्ता (सहकारी कर्ता) ही होता है, इसलिए आत्मामें जो भी परिणमन होता है उसके होनेमें यद्यपि पुद्गल कर्मका सहयोग अपेक्षित होता है, लेकिन उस परिणमनका उपादान कारण या कर्ता आत्मा ही होता हैं, पुद्गल कर्म नहीं । इसी तरह पुद्गलमें जो भी (कम नोकर्मरूप) परिणमन होता है, यद्यपि उसके होने में आत्माके रागादि भावोंका सहयोग अपेक्षित होता है, लेकिन उस परिगमनका उपादान कारण या कर्ता पुद्गल ही होता है आत्माके रागादिभाव नहीं ।
समयसारकी ८०, ८१ और ८२वीं गाथाओंके उक्त अभिप्रायको लक्ष्यमें रखकर ही समयसारको निम्नलिखित गाथाका अर्थ करना चाहिा
. जीवम्हि हेदुभूदे बंधस्स दु पस्सिदूण परिणामं ।
जीवेण कदं कम्मं भण्णदि उपयारमत्तेण ।। १०५ ॥ यह अर्थ इस प्रकार है कि चूंकि जीवका सह्योग मिलने पर ही पुद्गल कर्मका बन्धरूप परिणमन देखा जाता है, इसलिए जीवने पुद्गलका कर्मरूप परिणमन कर दिया ऐसा उपचारमात्रसे अर्थात् निमित्तनैमित्तिकभावकी अपेक्षारो कहा जाता है । यहाँ पर 'उपचारमात्रसे' इस पदका अर्थ निमिसनमित्तिकभाव से ही उल्लिखित ८२, ८१ और ८२ची गाथाओंके आधार पर करना सुसंगत है । तात्पर्य यह है कि लोकव्यवहारमें जिस प्रकार उपादानीपादेयभावकी अपेक्षा शिष्यका अध्ययन करना और निमित्त-नैमित्तिक भावकी अपेक्षा उपाध्यायका शिष्यको पढ़ाना दोनों ही वास्तविक है उसी प्रकार उपादानोपादेयभावकी अपेक्षा पुद्गल का कर्मरूप परिणत होना और आत्मावा रागादिरूप परिणत होना तथा निमिस-नैमित्तिक भाषकी अपेक्षा जीव द्वारा पदगलका कर्मरूप दिया जाना और पुदगल द्वारा आत्माका रागादिरूप किया जाना दोनों ही बास्तविक है। तत्त्वार्थश्लोकवातिकम सत्त्वार्थसूत्रके अध्याय प्रथम सूत्र की व्याख्या करते हुए आचार्य विद्यानन्दिने भी पट १५१ पर उपादानोपादेयभावके समान निमित्त-नमित्तिक भावको वास्तविक ही कहा है। वह कथन निम्न प्रकार है
सहकारिकारणेन कार्यस्य कथं तद् ( कार्यकारणत्वम् ) स्यादेकद्रव्यप्रत्यासत्तेरभावादिति चेत्, कालप्रत्यासत्तिविशेषात् ससिद्धिः । यदनन्तरं हि यदवश्यं भवति तत्तस्य सहकारिकारणमितरत्कार्यमिति प्रतीतम् | न चेदं सहकारित्वं क्वचिद् भावप्रत्यासत्तिः क्षेत्रप्रत्यासत्तिर्वा, नियमाभावात् । निकटदेशस्यापि चक्षुषो रूपज्ञानोत्पत्तौ सहकारित्वदर्शनात्, संदंशकादेश्चासुवर्णस्वभावस्य सौवर्णकटकोत्पत्ती । यदि पुनर्यावत् क्षेत्रं यद्यस्योत्पत्ती सहकारि दृष्टं यथाभावं च तत्तावत् क्षेत्र तथाभावमेव सर्वश्रेति नियता क्षेत्रभातप्रत्यासत्तिः सहकारित्वं कार्ये निगद्यते, तदा न दोषो, विरोधाभावात् । तदेवं व्यवहारनयसमाश्रयणे कार्यकारणभावो द्विष्ठः सम्बन्धः संयोगसमवायादिवत् प्रतीतिसिद्धत्वात् पारमार्थिक एव न पुनः कल्पनारोपितः, सर्वथाप्यनवद्यत्वात् ।