Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा अतः नाकादि अन्य इन्द्रियोंसे वर्ण नहीं है. यह कहनेका प्रसंग ही नहीं गाता है। इसी प्रकार निमित्त. नैमित्तिकसम्बन्ध निश्चय नयसे नहीं यह प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता, क्योंकि दो द्रव्योंका सम्बन्ध निश्चयनयका विषय ही नहीं है।
पुनश्च-आपने लिखा है कि 'संसारी आत्माके विकारभाव तथा चतुर्गलि भ्रमणम द्रव्य कर्मोक उदयका व्यवहारसे निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध है, र्तृकर्मसम्बन्ध नहीं है ।' आगें आपने अपने उत्तरमें एक स्थान पर यह भी लिखा है कि 'योंकी विवक्षित पर्यायोंमें कर्तकर्मसम्बन्ध नहीं है, फिर भी आगममें जहाँ भो दो दव्योंकी विवक्षित पर्यायों में कर्नु-कर्मसम्बन्ध कहा है वहीं वह उपचारमात्रसे कहा है। इससे यह तो फलित हो ही जाता है कि आगममें द्रव्यकर्मोक उदयका मात्मा के विकारभाव और चतुगात भ्रमणके साथ कर्तृकर्मसम्बन्धका प्रतिपादन किया गया है और आगमका यह प्रतिपादन आपको भी स्वीकार है । केवल आप उस कर्तृ-कर्मसम्बन्धको उपचारमात्र स्वीकार करके कार्यके प्रति निमित्तको अकिंचि करता सिद्ध कर देना चाहते . है। इस तरह हमारे आपके मध्य मतभेद केवल इतना ही रह जाता है कि जहां हमारा पक्ष आत्मामें उत्पन्न होनेवाले रागादि विकार और चतुर्गतिन मणरूप कार्यको उत्पत्तिमें द्रव्यकर्मके उदयरूप निमित्तकारण या निमित्तकर्ताको सहकारी कारण या सहकारी कर्ताके रूपमें सार्थक (उपयोगी) मानता है वहाँ आपका पक्ष उसे उपचरित कहकर उक्त कार्यमें अकिवित्कार अर्थात् निरर्थक (निरुपयोगी) मानता है और तब बापका पक्ष अपना यह सिद्धान्त निश्चित कर लेता है कि कार्य केवल उपादानको अपनी सामर्यसे स्वतः ही निष्पन्न हो जाता है। उसकी निष्पत्ति में निमित्त की कुछ भी अपेक्षा नहीं रह जाती है। जब कि हमारा पक्ष यह घोषणा करता है कि अनुभव, तर्क और आगम सभी प्रमाणोंसे यह सिद्ध होता है कि यद्यपि कार्यकी निष्पत्ति उपादानमें हुआ करती है अर्थात् उपादान ही कार्यरूप परिणत होता है फिर भी उपादान की उस कार्यरूप परिणतिमें निमित्तकी अपेक्षा बराबर बनी हुई है अर्थात उपादानकी जो परिणति आगममें स्वपरप्रत्यय स्वीकार की गयी है वह परिणति जमादानकी अपनी परिणति होकर भी निमित्तकी सहायतासे ही हुआ करती है, अपने आए नहीं हो जाया करती है। चूंकि आत्माके रागादिरूप परिणमन और चतुर्गति भ्रमणको उसका (आत्माका) स्त्रपरप्रत्यय परिणमन आगम द्वारा प्रतिपादित किया गया है, अतः वह परिणमन आत्माका अपना परिणमन होकर भी द्रव्यकोंक उदयकी सहायतास ही हुमा करता है । जैसे
. न जातु रागादिनिमिनभावमात्मात्मनो याति यथार्ककान्तः। तस्मिन्निमित्तं परसंग एवं वस्तुस्वभावोऽयमुदेति तावत् ।।१७५।।
-समयसार आत्मख्याति टीका कलश इसमें अमृत चन्द्रसूरिने स्पष्ट कर दिया है।
कलशका भाव यह है कि आत्मामें उत्पन्न होनेवाले रागादिभावोंका आत्मा स्वयं निमित्त नहीं है, किन्तु परवस्तुके संसर्गसे ही आत्मामें रागादिभाव उत्पन्न होते हैं, जिस प्रकार कि सूर्यकान्तमणि परके संसर्गसे ही तदनुरूप विविध रंगोंके रूप परिणत होता है । वस्तुका स्वभाव ही ऐसा है कि परवस्तुके संयोगसे बह तदनुरूप परिणमन करती रहती है ।
इसी बातको 'जीवपरिणामहे,'......इत्यादि समयसारकी ८०वीं गाथा भी पुष्ट कर रही है, जिराको आपने अपने पक्षकी पुष्टि के लिये अपने उत्तरमें उपस्थित किया है, लेकिन जिसके विषयमें हम अपनी द्वितीय प्रतिशंकामें लिख चुके हैं कि यह गाथा आपके मन्तव्यके विरुङ्ग ही अभिप्राय प्रकट करती है। याने जीवके